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[२४९ गिरि-कन्दराओं में, गिरि-शिखरों पर सघन अरण्य में, पाताल जैसे नदी के निकटस्थ बिलों में, जल हीन मरुभूमि में एवं अन्य दुर्गम स्थल में सामान्य सैनिक सह कुमार को खोजना मेरे लिए जितना सहज होगा विशाल सैन्यवाहिनी लेकर आपके लिए वह सहज नहीं होगा, उचित भी नहीं होगा । गुप्तचर की तरह मैं कहीं भी अकेला जा सकता हूं । सामान्य पथ पर हस्ती का चलना सम्भव नहीं है ।' ( श्लोक १०३ - ११०) समझाकर पैरों पर गिर राजधानी लौट जाने
अश्वसेन को इस प्रकार बार-बार कर महेन्द्र सिंह ने उन्हें दुःखार्त्त चित्त से को विवश किया और खुद उसी क्षण सामान्य विश्वस्त अनुचरों सहित अवारित हस्ती की तरह महारण्य में प्रविष्ठ हो गया । की खोज में वन के समस्त प्रान्तों में घूमने सींगों से उत्क्षिप्त पत्थरों से वह बन पथ असमतल तप्त सूअरों के प्रवेश के कारण वहाँ के सरोवर झाड़-झंखाड़ भालुओं एवं
सिंह गर्जना से
वह सनत्कुमार लगा । गैंडों के था । ग्रीष्म से कर्दममय थे । प्रतिध्वनित होता था। चीताओं द्वारा अनुसरण करने के कारण हरिणों का झुंड इधर-उधर भाग रहा था । वृक्षों पर बड़े-बड़े अजगर लिपटे हुए थे । सद्य पशुओं को निगलने के कारण वे हिलने नहीं पा रहे थे । वृक्ष की छाया में हरिण घूम रहे थे । नदी मार्ग का पथ पानी पीने के लिए आगत सिंह - सिंहनियों द्वारा अबरुद्ध था । इसके अतिरिक्त मदोन्मत्त हस्तियों द्वारा उत्पाटित भग्न वृक्षशाखाओं से उस अरण्य पथ पर चलना कठिन ( श्लोक १११-११७)
था ।
महेन्द्र सिंह जितना ही अग्रसर होता गया वैसे-वैसे ही उसके अनुचर भी छिन्न-भिन्न होते गए । कंटकवृक्ष, वन्य पशु, टीले गह्वर से वह वन क्रमशः भयंकर होता गया । उसके अनुचर श्रम-क्लान्त होकर एक-एक कर उसको परित्याग कर चले गए । संसार त्यागी मुनि की तरह तब वह एकाकी ही वन में विचरण करने लगा। अब वह हाथ में धनुष बाण लेकर अधिकार प्राप्त आदिवासियों के राजकर्मचारी की तरह — गहन वनों में, गिरि - कन्दराओं में घूमने लगा । हाथियों की चींग्घाड़ और सिंह की गर्जना में उसे सनत्कुमार की ही पुकार