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सुनायी पड़ी अतः वह उधर ही दौड़ गया । वहाँ उन्हें न पाकर निर्झर के शब्द को ही उनकी पुकार समझकर वहीं जाकर उपस्थित हो गया । प्रेम का तो यही नियम है। वह नदी, हस्ती और सिंह को बोला उन सबों ने सनत्कुमार के कण्ठ-स्वर का अनुकरण किया है इसी से वह भ्रमति हो गया है कारण अंश को देखने से ही तो समग्र को जाना जाता है ।
( श्लोक ११८-१२३) महेन्द्र सिंह ने अपने मित्र को वहां न पाकर पथभ्रष्ट पथिक की तरह एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़कर चारों ओर देखा । दरिद्र पुत्र की तरह वह एकाकी बसन्तकाल में अशोकवन में दुःख से कार बने हुए की तरह वकुलवन में विभ्रान्त की तरह, सहकार वन में उद्विग्न की तरह, मल्लिकावन में असहाय की तरह, कणिकावन में जीवन से मानो घृणा हो गयी हो इस प्रकार, पाटलवन में पाण्डुर की तरह सिन्धुवार वन में दूरागत की तरह चम्पक वन में कम्पित की तरह और खल की तरह मलय पवन से दूर रह कर, कोयल के पंचम स्वर से मानो उसके कर्ण कुहर विदीर्ण हो रहे हों व चन्द्र किरणों से देह की ज्वाला शान्त नहीं हो रही है इस प्रकार वसन्तकाल व्यतीत किया ।
( श्लोक १२४-१२८ ) ग्रीष्मकाल भी उसने एकाकी विचरण करते हुए ही बिताया। प्रति पद पर सूर्य किरणों से तप्त रजकणों ने उसके चरण-कमल के नखों को विच्छुरित अग्नि- स्फुलिंग की तरह दग्ध किया । मानो वह पैरों की ज्वाला को अग्राह्य कर दावाग्नि की भष्म राशि पर चलने का इन्द्रजाल दिखा रहा हो इस प्रकार उस पथ पर चलने लगा । उसने पार्वत्य हस्ती की तरह अग्निशिखा रूपी उत्तप्त हवा में दग्ध शरीर की उपेक्षा कर रोगी के औषध-पान की तरह नदी के उत्तप्त और पल्वलयुक्त जल को पीकर पथ अतिक्रम किया ।
( श्लोक १२९ - १३२ )
राक्षस जैसे मुख से अग्नि- शिखा निकालते हैं वैसे ही विद्युत् उद्गिरणकारी भयंकर मेघ को देखकर भी वह जरा भी भयभीत नहीं हुआ । दीर्घ व अविच्छिन्न शरधारा-सी जलधारा से अक्रान्त हो कर भी वह सामान्य भी विचलित