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२४४] ने उनके जीवन की आशंका कर विष्णुश्री की मृत देह उन्हें दिखाई। राजा ने जब उसे देखा तब उसके केश भाल के केश-से अविन्यस्त थे। आंखें शशक नेत्रों की तरह वन्य वक द्वारा निकाल ली गई थीं। स्तन मांस-लोलुप शकुन द्वारा विक्षत् था, उदर की आंतें शृगालों द्वारा निकाली हुई वीभत्स थीं। सड़े भात पर मक्खियां जैसे भनभनाती हैं वैसे ही उसकी देह पर मक्खियां भनभना रही थीं। फटे हए अण्डे के चारों ओर जिस भांति चीटियां जूट जाती हैं उसी प्रकार उसकी देह के चारों ओर चीटियां लगी हई थीं और उस देह से दुर्गन्ध निकल रही थी। यह देखकर राजा का मन संसार से विरक्त हो गया। वे मन ही मन सोचने लगे :
___'हाय ! इस असार संसार में कुछ भी मूल्यवान नहीं है । फिर भी उसकी देह को मूल्यवान समझकर मैं इतने दिनों तक मोहान्ध बना रहा । जो परम मूल्यवत्ता को जानता है, वह कभी नारी के देह-सौन्दर्य पर प्रलब्ध नहीं होता। कारण, वह हल्दी के रंग की भांति क्षण स्थायी होता है। चर्म द्वारा आवत स्त्री-देह बाहर से ही सुन्दर होती है; किन्तु भीतरी मांस, मेद, मज्जा, पित्त, कफ, मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं से भरी हुई और पेशियों की शक्ति द्वारा धुत होती है। यदि नारी देह बाहर-सी भीतर और भीतर-सी बाहर होती तब तो उसके प्रेमी सियार-गिद्ध ही होते । कामदेव यदि नारी-देह को अस्त्र बनाकर संसार-विजय करना चाहते हैं तब पालक की भांति वे अविवेकी अन्य अस्त्र का व्यवहार क्यों नहीं करते ? जिस राग द्वारा सब कुछ मोहनीय हो जाता है उसी राग को मैं जड़ सहित उखाड़ फेंक*गा।' (श्लोक ३०-४०)
ऐसा चिन्तन कर संसार-विरक्त होकर राजा ने आचार्य सुव्रत से दीक्षा ग्रहण कर ली। शरीर के प्रति विगतस्पृह होकर सूर्य जिस प्रकार अपनी किरणों से जल को सोख लेता है उसी प्रकार उन्होंने एक-एक दिन, बेले-बेले की तपस्या द्वारा स्व-शरीर को सुखा डाला। इस प्रकार कठिन तपस्या में जीवन व्यतीत कर मृत्यु के पश्चात् वे सनत्कुमार देवलोक में परिपूर्ण आयुष्य वाले इन्द्र रूप में उत्पन्न हुए।
__(श्लोक ४१-४३) सनत्कुमार देवलोक का आयुष्य समाप्त हो जाने पर विक्रमयश के जीव ने रत्नपुर नगर में जिनधर्म नामक वणिक पुत्र के रूप