________________
[२४५
में जन्म ग्रहण किया। वे बाल्यकाल से ही समुद्र जिस प्रकार तट की मर्यादा का पालन करता है उसी प्रकार श्रावक के बारह व्रतों का पालन करने लगे । तीर्थङ्करों की अष्टप्रकारी पूजा, साधुओं को निर्दोष आहार दान और स्वर्मियों की वात्सल्यादि भक्ति सहित सेवा करते हुए जीवन बिताने लगे।
(श्लोक ४४-४७) नागदत्त ने पत्नी से वियुक्त होकर आर्तध्यान में मरकर विभिन्न तिर्यंच योनियों में दीर्घकाल तक विचरण कर सिंहपुर नगर में अग्निशर्मा नामक ब्राह्मण के पुत्र रूप में जन्म लिया । वयस्क होने पर त्रिदण्डी संन्यासी के रूप में विचरण करता हुआ वह रत्नपुर नगर में आया और दो-दो मास का उपवास करने लगा। उस समय हरिवाहन रत्नपूर के राजा थे। वे वैष्णव थे। जब उन्होंने अग्निशर्मा की तपस्या के विषय में सुना तो उसे पारणे के लिए राजसभा में आमन्त्रित किया। अग्निशर्मा राजप्रासाद में आया तो हठात् वहां जिनधर्म को देखा । उसे देखने मात्र से ही पूर्व जन्म के बैर के कारण क्रोधित हो गया और करबद्ध होकर खड़े राजा से बोला-'महाराज, यदि आप मुझे पारणा करवाना चाहते हैं तो क्षीर का गरम पात्र इस वणिक पुत्र को पीठ पर रखकर करवाएँ अन्यथा मैं बिना पारणा किए ही चला जाऊँगा।'
(श्लोक ४८-५४) राजा ने जब विनीत भाव से मुनि को समझाया और कहा'श्रेष्ठिपुत्र की तो नहीं अन्य किसी की पीठ पर गर्म क्षीर का पात्र रखकर मैं आपको पारणा करवाऊँगा।' इस पर अग्निशर्मा क्रुद्ध होकर राजा से बोला-'राजन्, आप यदि इसी की पीठ पर गर्म क्षोर का पात्र रखकर पारणा करवाएँ तो करूंगा नहीं तो बिना पारणा किए ही वापस लौट जाऊँगा।' (श्लोक ५५-५६)
राजा वैष्णव धर्मावलम्बो थे अतः सम्मत हो गए; किन्तु यह कैसा विवेक ? राजाज्ञा के कारण जिनधर्म ने अपनी पीठ उन्मुक्त कर दी। संन्यासी जितनी देर तक पारणा करता रहा जिनधर्म ने हस्ती जिस प्रकार दावाग्नि का उत्ताप सहन करता है उसी प्रकार उस पात्र का उत्ताप सहन किया। मेरे पूर्व जन्मकृत किसी पाप का ही यह फल है जो कि इस त्रिदण्डी बन्धु के उपकार से परिसमाप्त हो जाए ऐसा वह दीर्घकाल तक सोचता रहा। (श्लोक ५७-५९)
अग्निशर्मा का पारणा समाप्त होने पर जब वह पात्र उठाया