________________
[२४३
अपने प्रासाद में रखगा । अ-पात्र को दान की विधाता की इस भूल को मैं सुधार दूंगा।
(श्लोक ७-१५) इस प्रकार सोचकर विक्रमयश काम के वशीभूत बना अपना यश नष्ट कर उसे अपने अन्तःपुर में ले आया और उसके साथ नानाविध काम-क्रीडा करने लगा। उसके विरह में वणिक तो अर्द्ध उन्माद दशा को प्राप्त हो गया मानो वह भूतग्रस्त हो गया है या धतूरा पान कर लिया है या किसी व्याधि से आक्रान्त हो गया है अथवा मदिरा पान कर ली है या उसे किसी सर्प ने दंशन कर लिया है या उसका वायु पित कफ विषम हो गया है ।
(श्लोक १६-१९) उसके विरह-दुःख में वणिक के दिन एवं मिलन-सुख में राजा के दिन व्यतीत होने लगे।
(श्लोक २०) राजा सदैव विष्णुश्री के पास ही रहते अतः उसकी अन्य रानियों ने ईर्ष्यान्वित होकर उस पर इन्द्रजाल और मन्त्र का प्रयोग किया। इन्द्रजाल और मन्त्र-प्रयोग से विष्णुश्री कीटकाटी लता-सी धीरे-धीरे सूखकर मृत्यु को प्राप्त हो गयी। उसकी मृत्यु से राजा भी मृतप्राय हो गए एवं दुःख और वेदना से उनकी अवस्था नागदत्त-सी हो गयी। मुझ पर अभिमान किया है समझकर राजा उसकी मृत देह का अग्नि-संस्कार नहीं करने देते। अतः मन्त्रियों ने छलना द्वारा उसकी मृत देह को वन में फेंक दिया। तब राजा विलाप करते हुए कहने लगे'अभी तो तुम यहाँ थी, किन्तु अब दिखायी क्यों नहीं पड़ रही हो ? वियोग के सहचर लुका-छिपी के इस खेल को समाप्त करो। कारण वियोग की अग्नि खेल नहीं है, यह जलाकर नष्ट कर देती है। तुम मेरे दुःख को क्यों समझ नहीं पा रही हो—कारण हमारी आत्मा तो एक ही है। औत्सुक्यवश क्या तुम किसी क्रीड़ा-सरिता के निकट गयी हो या क्रीड़ा-पर्वत पर चढ़ गयी हो या उपवन में विहार करने गयी हो, किन्तु, मेरे बिना तुम विहार कैसे करोगी? मैं भी आ रहा हूं।'
ऐसा कहते हुए राजा उन्मादी की तरह नाना स्थानों में परिभ्रमण करने लगे।
(श्लोक २१-२९) इस प्रकार बिना खाए जब तीन दिन बीत गए तब मन्त्रियों