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बन्धन क्षीण होता है वही तपस्या यदि घमण्डयुक्त हो तो उससे उलटे विशेष कर्म का बन्धन हो जाता है।
(श्लोक २६९.२७०) पूर्व के महापुरुषों ने अन्तर्ज्ञान द्वारा जिन शास्त्रों की रचना की उन्हें पढ़कर मैं सर्वज्ञ हूं जो ऐसा अहंकार करते हैं वे उस शास्त्र का ही भक्षण करते हैं। गणधरों द्वारा शास्त्र निर्माण और धारण करने की शक्ति को सुनकर ऐसा कौन श्रोता और हृदयवान है जो शास्त्रज्ञान का अहंकार करेगा ?'
(श्लोक २७१-२७२) ___ 'दोष रूपी शाखा का विस्तार और गुण रूपी मूल को संकुचित करने वाले वृक्ष को मृदुता रूपी नदी की बाढ़ से उत्पाटित करना उचित है । उद्धत मान का निषेध मृदुता व मार्दवता स्वरूप है और उद्धता मान का स्वरूप है। जब जाति, कुल आदि की उद्धता मन में आने लगे तब उसे दूर करने के लिए मार्दव भावों को लाएँ। सबके प्रति विनम्र बनें विशेषकर जो पूज्य हैं उनके प्रति तो अवश्व ही बने कारण मृदुता मनुष्य को मुक्त करने में समर्थ है। मान के कारण ही बाहुबली पाप रूपी लता में आबद्ध हो गए थे और मृदुता अवलम्बन करते ही पाप से मुक्त हो केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था। चक्रवर्ती महाराज तक चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् निःसंग होकर शत्रु के घर भी भिक्षा ग्रहण करने जाते हैं। मान को उखाड़ने के लिए उनकी मृदुता भी कितनी कठोर है ? चक्रवर्ती सम्राट भी मान परित्याग कर तत्काल प्रवजित साधु को वन्दन-नमन करते हैं और हमेशा करते रहते हैं। मान पाप-वर्द्धक है इस तत्व को समझकर बुद्धिमान व्यक्ति मान विनष्ट करने के लिए सदैव मृदुता का अवलम्बन करते हैं।
(श्लोक २७३-८०) _ 'माया असत्य की जननी है। सदाचार रूपी वृक्ष को निर्मूल करने में कुठार रूप है, अविद्या की जन्म भूमि और हीन जन्म का कारण है । कुटिलता में चतुर और कपटयुक्त वाक्वृत्ति युक्त पापी मनुष्य जगत को ठगने के लिये माया का विस्तार करते हैं, किन्तु इससे वे अपनी आत्मा को ही ठगते हैं। राजा अर्थलाभ के लिए राजनीति के षड्गुणों से छल, प्रपंच और विश्वासघात कर संसार को ठगते हैं। ब्राह्मण अन्तर में सद्गुण से शून्य है; किन्तु ऊपर से गुणवान होने का ढोंग कर तिलक मुद्रा मन्त्र दीनता आदि से मनुष्य