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को ठगते हैं। कपटी वणिक अर्थ लोभ से कम वजन और खराब वस्तु देकर लोगों को ठगते हैं। अन्य धर्मावलम्बी यद्यपि अन्तर से नास्तिक हैं बाहर मूज शिखा भष्म वल्कल अग्नि (धूनी) आदि धारण कर मुग्ध श्रद्धाल लोगों को ठगते हैं। गणिकाएँ यद्यपि अन्तर में स्नेहहीन होती हैं फिर भी बाहर हाव-भाव दिखाकर लीला विलास और कटाक्ष द्वारा लोगों को विमुग्ध कर ठगती हैं। स्वामीस्त्री, पिता-पुत्र, भाई-भाई, मित्र-मित्र, स्वामी-सेवक और अन्य लोगों को परस्पर माया द्वारा ठगते हैं। चोर धन के लोभ से दिनरात सतर्क रहता हुआ असावधान मनुष्यों को निर्दयतापूर्वक ठगते हैं। कला प्रदर्शनकारी और निम्न श्रेणी के व्यक्ति जो कि अपनी कला की सहायता से आजीविका चलाते हैं वे सरल मनुष्यों को नाना प्रकार से ठगते हैं।
(श्लोक २८१-२९१) 'भूत प्रेतों की तरह व्यंतर जाति में हीन योनि के देवगण छल और प्रपंच से प्रमादी मनुष्यों को क्रूरतापूर्वक नाना प्रकार से दुःख देते हैं। मत्स्यादि जलचर जीव छल से अपने ही शावकों को खा जाते हैं। धीवरगण छलपूर्वक जाल से मत्स्यादियों को फंसाकर उनके प्राण हरण करते हैं। शिकारी अनेक प्रकार की माया से स्थलचर पशुओं का संहार करते हैं। मांस-लोलुप प्राणी लावक आदि पक्षियों को छल से पकड़कर क्रूरता पूर्वक उनकी हत्या कर खा जाते हैं। इस प्रकार मायाचारी जीव मायाचार से अन्य को ठगकर स्वधर्म और सद्गति को नष्ट कर स्वयं को ही ठगते हैं। जो माया तिर्यक योनि में उत्पन्न होने में कारणरूप बीज है मोक्ष द्वार को दृढ़ता से बन्द करने वाली अर्गला है और विश्वास रूपी वक्ष के लिए दावानल तुल्य नाशकारी है उसे विवेकवान अवश्य ही त्याग कर देंगे। भविष्य में होने वाले तीर्थंकर मल्लीनाथ पूर्वजन्मकृत सूक्ष्म माया शल्य के कारण स्त्री रूप में उत्पन्न होंगे अतः द्रोहकारी मायारूपी सर्प को सरलता रूपी औषधि द्वारा जय करना उचित है। सरलता से आनन्द प्राप्त होता है; सरलता मोक्ष रूपी पुरी का सरल मार्ग है। इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है कि दूसरों को दुःख मत दो। जो सरलता का सेवन करते हैं वे सबके प्रीति-भाजन होते हैं। जो कुटिल मायाचारी हैं लोग उनसे सर्प की भाँति डरते हैं। जो कर्म और चिन्तन से सरल हैं वे संसार में रहते हुए भी स्वतः ही