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विषधर को क्षमा रूपी गारुड़ी मन्त्र से जय करते हैं।
(श्लोक २४५-२५४) _ 'मान कषाय विनय, श्रत और शील रूपी त्रिवर्ग का नाश कर प्राणी के विवेक रूपी नेत्रों को बन्द कर अन्ध बना देता है। जाति, कुल, ऐश्वर्य, बल, शक्ति, सौन्दर्य और तप एवं ज्ञान का अभिमान ऐसे कर्म बन्धनों का कारण बनता है कि वह उसी अनुपात में परजन्म में हीनता को प्राप्त होता है। ऊँच-नीच मध्यम जाति के ऐसे अनेक भेदों को देखकर भी क्या कोई बुद्धिमान जाति का अभिमान करेगा? जाति की हीनता और उत्तमता कर्म के अनुरूप ही होती है अतः परिवर्तनशील जो जाति सामान्य कुछ दिनों के लिए प्राप्त हुई है उस पर क्या अहंकार करना है। अन्तराय कर्म क्षय होने पर ही मनुष्य सम्पदा प्राप्त करता है अन्यथा नहीं कर सकता अतः वस्तु स्थित को ज्ञात कर संपदा का अहंकार मत करो।
(श्लोक २५५-२६१) 'नीच कुल में जन्में मनुष्य में भी ज्ञान-सम्पन्न, चारित्र संपन्न मनुष्य पाए जाते हैं तब फिर क्यों उच्चकूल में जन्म ग्रहण करने का गर्व करते हो? सद्चारित्र और असदुचारित्र से कुल का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा सोचकर विवेकशील व्यक्ति के योग्य कुल का गर्व मत करो।
(श्लोक २६२-२६४) 'बलवान मनुष्य को भी रोग एक मुहूर्त में दुर्बल और वृद्धता से जीर्ण कर देता है। इसलिए बल और शक्ति का गर्व करना भी उचित नहीं है। वार्धक्य और मृत्यु से जो बल पराजित है उस बल पर गर्व कैसा करना।
(श्लोक २६५-२६६) सप्त धातुओं से निर्मित इस देह का रूप कभी बढ़ता है, कभी घटता है। रोग और वार्धक्य रूप को विनष्ट कर देता है। तब ऐसे रूप का गर्व ही क्या है ? भविष्य में सनत्कुमार नामक एक चक्रवर्ती होंगे जिनके जैसा रूपवान कोई नहीं होगा। वह रूप भी जब विनष्ट हो जाएगा तब रूप का भी क्या गर्व ?
(श्लोक २६७-२६८) "अतीतकाल में हुए भगवान् ऋषभदेव के घोर तप और भविष्य के चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के घोर तपों को अवगत कर स्वयं के सामान्य तप पर गर्व मत करो। जिस तपस्या से कर्म