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प्रतिमाओं का अष्टाह्निका उत्सव कर सकल सुरासुर स्व-स्व निवास स्थान को चले गए।
(श्लोक २०६-२१४) सुबह होने पर राजा जितारी ने स्व-पुत्र रूप में जन्में अर्हत् का स्नानाभिषेक महाधमधाम से सम्पन्न किया। जिस भांति राजगृह में उत्सव अनुष्ठित हुअा उसी प्रकार प्रकार प्रत्येक घर में, प्रत्येक पथ में, प्रत्येक बाजार में, समग्र नगरी में अनुष्ठित हरा। वे जल गर्भ में थे तब प्रभूत धान्य उत्पन्न हया था (सम्भूत) और जन्म समय द्वितीय कर्षण (सम्वा) सम्पन्न हुआ अतः उन्होंने पुत्र का नाम रखा सम्भव ।
(श्लोक २१५-२१७) राजा ने त्रिलोकपति पुत्र का बार-बार मुख देखा। ऐसा लगा-मानो वे अमृत सागर में निमज्जित हुए जा रहे हैं । राजा बहुमूल्य रत्न की भांति त्रिलोकपति को कभी कोड़ में, कभी वक्ष पर, कभी सिर पर धारण कर स्पर्शसुख का अनुभव करते हैं । शक द्वारा नियोजित पांचों धात्रियां अधिकाधिक भक्ति के कारण देह की काया की तरह कभी उनका परित्याग नहीं करती; किन्तु वे उनकी गोद से उतरकर सिंह-शावक की तरह भयहीन होकर इधरउधर विचरण करते और उन्हें सिंहनी की भांति उद्विग्न कर देते । यद्यपि वे तीन ज्ञान के धारक थे फिर भी वे मरिण कूट्रिम प्रतिबिम्बित चन्द्र को पकड़ने के लिए बाल्य-क्रीड़ाएं करते।
(श्लोक २१८-२२२) उनका साहचर्य पाने के लिए पाए मानव रूपधारी देवकुमारों के साथ वे क्रीड़ा करते । देवों के सिवाय उनसे क्रीड़ा करने में भला कौन समर्थ है ? महावत जैसे हस्ती के सम्मुख पीठ कर दौड़ता है उसी प्रकार देव भी खेल ही खेल में उनकी तरफ पीठ कर दौडते । खेल के बहाने से जब वे जमीन पर गिरकर बचायोबचायो करते तब प्रभु अवस्थानुसार उन पर करुणा वर्षण करते । चन्द्रमा जिस प्रकार रात्रि का प्रथम भाग व्यतीत करता है उसी प्रकार उन्होंने खेल-कूद में बाल्यकाल व्यतीत किया।
(श्लोक २२३-२२६) चार सौ धनुष दीर्घ स्वर्ण वर्ण वाले भगवान् ऐसे लगते थे मानो मनुष्यों को प्रानन्दित करने के लिए मेरु ने ही मनुष्य रूप धारण कर लिया है।
(श्लोक २२७)