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रक्षक, तृतीय तीर्थंकर, मैं प्रापको नमस्कार करता हूँ। असाधारण शक्ति के कारण आप साधारण मनुष्य से भिन्न हैं। जन्म से ही पाप तीन ज्ञान और अनेक शक्तियों के अधिकारी हैं। आपकी देह पर एक हजार आठ शुभचिह्न हैं। पापका यह जन्म-कल्याणक उत्सव सदा निद्रित के निद्रा विनाशकारी मुझ जैसे के लिए सुख का सूचक है। हे त्रिजगत्पति, अाज भी यह सम्पूर्ण रात्रि अभिनन्दनीय है क्योंकि आज रात्रि में कलंकहीन चन्द्र-से आपने जन्म ग्रहण किया है। हे भगवन्, अापकी वन्दना के लिए आने-जाने वाले देवों के कारण यह पृथ्वी भी स्वर्ग में परिणत हो गई है। आज से देवों को किसी अन्य मदिरा की आवश्यकता नहीं है। प्रापकी दर्शन रूपी मदिरा को पान कर उनका चित्त पूर्ण हो गया है। हे भगवन्, भरत क्षेत्र के श्रेष्ठ सरोवर में उत्पन्न कमल-तुल्य प्राप-से भ्रमर की भांति मैं परमतृप्ति को प्राप्त करूं । मृत्यु-लोक के ये अधिवासी भी धन्य हैं जो सर्वदा आपके दर्शनों का सुख प्राप्त करते हैं। हे भगवन्, प्रापको देखने का सौभाग्य स्वर्ग के राज्य से भी बढ़कर है।'
__ (श्लोक १९३-२०५) इस प्रकार प्रभु की स्तुति कर शक ने पुन: पांच रूप धारण किए । एक रूप से प्रभु को ग्रहण किया एवं अन्य चार रूपों से पूर्व की ही भांति छत्रादि धारण किए। मुहर्त्तमात्र में वस्त्रालंकारों से भूषित प्रभु को माता सेनादेवी के पास सुला दिया और श्रीदाम गण्डक चँदोवे में लटका दिया। एक जोड़ी अंगद, दो दिव्य वस्त्र उन्होंने तकिए पर रख दिए। तत्पश्चात् सेनादेवी पर प्रयुक्त अवस्वापिनी निद्रा और तीर्थंकर के प्रतिबिम्ब को उठा लिया। तदुपरान्त शक्र ने अभियोगिक देवों द्वारा अपनी प्राज्ञा वैमानिक भवनपति व्यन्तर और ज्योतिष्क इन चारों निकाय के देवों में घोषित करवा दी कि जो प्रभु और प्रभु की माता का अनिष्ट करने की इच्छा करेगा उसका मस्तक सात खण्ड होकर फूट जाएगा। बाद में उन्होंने प्रभु के अंगुष्ठ में अमृत भर दिया। कारण, अर्हत् स्तन-पान नहीं करते । जब उन्हें भूख लगती है वे अपना अगुष्ठ चूसते हैं। इसके बाद पांच अप्सराओं को धाय माता के रूप में नियुक्त कर अर्हत् की वन्दना की और वहां से प्रस्थान किया । अन्य इन्द्र मेरुपर्वत से ही नन्दीश्वर द्वीप चले गए। वहां शाश्वत नहत्