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वे छत्र की तरह सिर पर उष्णीष धारण करते थे । उनके केश थे घने, काले और मसृण । ललाट का सौन्दर्य चन्द्रमा का सा था । नेत्र थे कर्ण विस्तृत, कर्ण स्कन्धस्पर्शी । उनके वृष से स्कन्ध, दीर्घ बाहु, प्रशस्त वक्ष, केशरी से क्षीरण कटि, गज-सुण्ड-सी जंघाए व पैर हरिण से थे । घुटने छोटे, चरण कच्छप पृष्ठ से मसृरण और तोरणाकृति, अंगुलियां सीधी, रोम अलग-अलग, परिपूर्ण, काले, नरम और स्निग्ध, श्वांस पद्मगन्धवाही, सर्व प्रकार की अपवित्रता से सर्वथा मुक्त । स्वभावतः ही उनका शरीर ऐसा था कि वे शरद् के पूर्ण चन्द्रमा की तरह सर्वदा अस्वाभाविक रूप से तरुण हैं - ऐसे प्रतीत होते थे । ( श्लोक २२८ - २३२ )
एक दिन उनके माता-पिता ने अपनी साध पूर्ण करने के लिए देव- कन्या- सी राजकुमारियों के साथ विवाह के लिए प्रस्ताव रखा । भोगकर्म अभी अवशेष हैं, देखकर एवं माता-पिता के प्रदेश को समझकर उन महामना ने विवाह की स्वीकृति दे दी । शक्र की उपस्थिति में राजा जितारि ने सम्भवकुमार का विवाहोत्सव सम्पन्न किया । इस उत्सव में हा-हा-हू-हू ने मधुर संगीत परिवेशित किया, गन्धर्वों ने मन्द्रित स्वर में वाद्य वादन किया, रम्भा, तिलोत्तमा आदि अप्सराम्रों ने नृत्य किया एवं उच्चकुलजात रमणियों ने मंगल गीत गाए । विवाहोपरान्त कभी नन्दन-वन से श्रेणीवद्ध उद्यानों में, कभी रत्नगिरि से क्रीड़ा पर्वतों पर, कभी सुधा समुद्र से स्निग्ध सरोवरों में, देव- विमानों से चित्रगृह में, यूथपति हस्ती की भांति सम्भव स्वामी हजारों तरुणी और विचक्षण रमणियों के साथ क्रीड़ा करने लगे । इस प्रकार सांसारिक सुखों को भोगते हुए उन्होंने पन्द्रह लाख पूर्व वर्ष व्यतीत कर लिए । ( श्लोक २३३ - २४१ )
संसार से वैराग्य उत्पन्न होने पर राजा जितारि ने सम्भव स्वामी की सम्मति लेकर उन्हें अंगूठी के हीरे की तरह सिंहासन पर सस्थापित किया । तदुपरान्त उपयुक्त गुरु से दीक्षा लेकर राजा ने अपनी मनोकामना पूर्ण की। पिता से राज्य ग्रहरण कर सम्भव स्वामी ने उद्दण्ड प्रताप से माला की भांति पृथ्वी की रक्षा की । आपके प्रताप से प्रजा निरुपद्रव एवं व्याधिरहित होकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगी। जबकि सम्भव ने अपनी भौहों को भी कुचित नहीं किया तो प्रत्यंचा कु ंचित करने का तो प्रश्न ही नहीं