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[२१५ स्थानकों की उपासना कर उन महात्मा ने तीर्थङ्कर गोत्र कर्म उपार्जन किया। तदुपरान्त यथासमय अनशनपूर्वक समाधिमरण प्राप्त कर वे वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में महान् ऋद्धि सम्पन्न देव रूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ८-१४) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विभिन्न रत्नों का आकर स्वरूप रत्नपुर नामक एक नगर था। इसकी वापिकाएँ एवं वाटिकाएँ पार्श्व स्थित रत्नजड़ित सोपान श्रेणियों की प्रभा से मानो गुथ गई हो इस प्रकार प्रतिभासित होती रहती थी। अर्हत् मन्दिरों सहित इसके स्वर्णमय गृह प्रति सोपान स्थित दर्पण के कारण मानो धर्म, अर्थ और काम रूप संसार की विविध वस्तुओं की उद्घोषणा करता था। मरकतमणि खचित इसका राजपथ रात्रि में नक्षत्रों द्वारा प्रतिबिम्बित होकर लगता मानो वहां मुक्ताओं से स्वस्तिक रचना की गई हो । पुरस्त्रियों द्वारा दीवारों की खटियों पर लटकाई गई पुष्पमालाएँ रत्न-हारों का भ्रम उत्पन्न करती थीं। उद्यानवापिकाओं के शीत से, अट्टालिका स्थित पाकशालाओं की ऊष्णता से और हस्तियों के मदक्षरण से वहां मानो शीत, ग्रीष्म और वर्षा ये तीनों ऋतुएँ सर्वदा रहती थीं।
(श्लोक १५-२०) यहां के राजा का नाम था भानू । वे प्रताप में सूर्य की तरह शत्रु रूप तृण के लिए अग्नि तुल्य थे और निर्मल गुण राजि से विभूषित थे। जिस प्रकार समुद्र-तरंग की गणना नहीं की जा सकती उसी प्रकार उनके गुणों की गणना करने में वृहस्पति भी असमर्थ थे। उच्चकुल जात परिणिता साध्वी स्त्री की भांति इस पृथ्वी ने, जिसका कर (हाथ) एक मात्र वे ही ग्रहण करते थे, अन्य किसी को अपना स्वामी नहीं मानती थीं। चंचला लक्ष्मी को अपने गुणों की रस्सी से आबद्ध कर उसे हस्ती-शावक की तरह अपने हस्त रूपी आलान स्तम्भ में बांध रखा था । सूर्य की भांति देदीप्यमान उन्होंने अपने शत्रुओं के तेज को मशाल की तरह निष्प्रभ कर दिया था। राजाओं की जय करने में उन्हें भृकुटि भी चढ़ानी नहीं पड़ती, धनुष धारण करना तो दूर की बात थी।
(श्लोक २१-२६) उनकी रानी का नाम था सुव्रता। वह साध्वी स्त्रियों में अग्रगण्य और स्वामी के चरण-रूपी कमलों में सदा संलग्न रहकर भँवरों को भी लज्जित करती थी। उन्हें कोकिल से मधुर कण्ठ