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मिला था, हंस से गति और दृष्टि हरिण से । विनय उसकी सहचरी थी, चारित्र परिचारिका और अभिजात्य कंचुकी थी। उसकी स्वाभाविक पर्षदा यही थी। स्वामी के प्रति आनुगत्य उसका स्वाभाविक अलङ्कार था। हार आदि अन्य अलङ्कार तो उसके द्वारा अलंकृत होते थे।
(श्लोक २७-३०) दृढ़रथ के जीव ने वैजयन्त विमान के सुख भोगकर वहां की सर्वाधिक आयुष्य पूर्ण की। वैशाख सुदी सप्तमी को, इसका जीव, चन्द्र जब पुष्या नक्षत्र में अवस्थित था तब वहां से च्युत होकर देवी सूत्रता की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ। उस समय उन्होंने तीर्थङ्कर जन्म सूचक हस्ती आदि चौदह महास्वप्न देखे । माघ महीने की शुक्ला तृतीया को चन्द्र जब पुष्या नक्षत्र में अवस्थित था तब रानी सुव्रता ने यथासमय कनकवर्ण वज्र लांछनयुक्त एक पुत्र को जन्म दिया।
(श्लोक ३१-३४) भोगंकरा आदि छप्पन दिक्कुमारियां आईं और प्रभु-माता एवं प्रभु का जन्मकृत्य सम्पन्न किया। सौधर्मेन्द्र पालक विमान से आए और प्रभु को मेरु पर्वत पर ले गए। वहां प्रभु को गोद में लेकर वे अतिपाण्डकवला रक्षित सिंहासन पर बैठ गए। अच्यूतेन्द्रादि त्रेसठ इन्द्रों ने तीर्थ स्थलों से लाए जल से प्रभु को विधि अनुसार स्नान करवाया। तदुपरान्त शक्र ने प्रभु को ईशानेन्द्र की गोद में देकर उन्हें स्नान कराया, अंगराग लगाया और फिर उन्हें वन्दना कर यह स्तुति की:
हे पन्द्रहवें तीर्थङ्कर, हे भगवन्, जिनकी आकृति ध्यान योग्य है और जो स्वयं ध्यान समाहित हैं, मैं उन्हें वन्दना करता है। मैं देव और असुरों की अपेक्षा मनुष्यों को श्रेष्ठ मानता हूं। कारण, हे त्रिलोक-पूज्य, आपने संघ के नेता के रूप में जन्म ग्रहण किया है। दक्षिण भरतार्द्ध में मैं यदि मनुष्य-जन्म प्राप्त करूं तो मैं आपका शिष्य बनू । कारण, मोक्ष प्राप्ति के लिए आपका शिष्यत्व परम आवश्यक है। नारक और देव जन्म में क्या पार्थक्य है यद्यपि देव सुखी हैं; किन्तु प्रमाद के कारण आपके दर्शनों से वंचित हैं । जितने दिनों तक सूर्य की भांति आपका उदय नहीं हुआ था हे त्रिलोकनाथ, उतने दिनों तक उल्लू की तरह मिथ्यात्वसेवी लोग प्रगति करते रहे । मेघ वारि से जिस प्रकार वापियां पूर्ण हो जाती हैं उसी प्रकार