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मृत्यु से दुःखी होकर उन्होंने मृगांकुश नामक मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली । केवल ज्ञान और अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर वे यथासमय मोक्ष को प्राप्त हुए । ( श्लोक ३०७-३०८)
चतुर्थ सर्ग समाप्त
पंचम सर्ग
धर्मरूपी गंगा के जो हिमवान तुल्य हैं, मिथ्यात्वरूपी अन्धकार के विनाश में जो सूर्य स्वरूप और शरण्य हैं मैं उन भगवान् धर्मनाथ के चरणों की शरण ग्रहण करता हूं। उन्हीं तीर्थंकर के जीवनचरित्र का अब मैं वर्णन करूंगा जो संसार रूपी सरिता का अतिक्रमण करने में सेतु रूप हैं । ( श्लोक १-२ )
धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह में भरत नामक विजय में भद्दिलपुर नामक एक वृहद् नगर था । वहां के राजा का नाम था दृढ़रथ । बाहुबल में वे दन्तयुक्त हस्ती की भांति महाशक्ति सम्पन्न थे । सूर्य जिस प्रकार अन्य ज्योतिष्कों का तेज पान करता है उसी प्रकार उन्होंने अन्य राजाओं का तेज पान कर लिया था । समुद्र जैसे नदियों का जल ग्रहण करता है वे वैसे ही उनसे कर ग्रहण करते थे । विवेकवान होने के कारण उन्हें अपने राज ऐश्वर्य का जरा भी गर्व नहीं था कारण वे जानते थे इन्द्र का वैभव भी सेमल रूई की भांति क्षणस्थायी है । यद्यपि वे विषयभोग करते थे फिर भी जैसे दुर्दिन के अतिथि हों इस प्रकार संसार में निवास करते थे ।
( श्लोक ३-७ )
इन्द्रिय सुखों से विरक्त और देह के प्रति अनुराग रहित होकर उन्होंने राज्य वैभव आदि का शारीरिक मल की भांति परित्याग कर दिया । परित्याग कर वे दुःख रूप व्याधि के वैद्य विमलवाहन मुनि के निकट गए । राजाओं के मुकुटमणि से उन राजा ने मुनिराज से कामना के विनिमय में सम्यक् चारित्र रूपी उज्ज्वल रत्न ग्रहण किया । निःसंग होकर उन्होंने ध्यान की मातृका रूप साम्य भाव पालन और उपसर्ग सहन कर कठोर तप किया । विषयों रूपी म्लेच्छों से अपवित्र आत्मा को शुष्क कर तीर्थस्थान से लाए पवित्र जल - से शास्त्र रूप वारि से परिशुद्ध किया । अर्हत् भक्ति आदि बीस