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[२१३ भगवान् की इस देशना को सुनकर बहुतों ने अणगार धर्म को ग्रहण किया। वासुदेव ने सम्यक्त्व ग्रहण किया और सुप्रभ ने श्रावक धर्म । दिन का प्रथम याम बीत जाने पर प्रभु ने देशना समाप्त की और उन्हीं के पादपीठ पर बैठकर यश गणधर ने देशना आरम्भ की। दिन का द्वितीय याम बीत जाने पर उन्होंने भी अपनी देशना समाप्त की।
(श्लोक २८८-२८९) शक्र, वासुदेव, बलदेव एवं अन्यगण प्रभु को वन्दना-नमस्कार कर स्व-स्व निवास को लौट गए।
(श्लोक २९०) भगवान् भव्य जीवों को ज्ञानदान करते हुए ग्राम, खान, नगरादि में प्रव्रजन करने लगे। उनके संघ में ६६००० साधु, ६२००० साध्वियां, ९१४ पूर्वधर, ४३०० अवधिज्ञानी, ५००० मनःपर्यायज्ञानी, ५००० केवलज्ञानी, ८००० वेक्रिय लब्धिधारी, ३२०० वादी, २०६००० श्रावक एवं ४१४००० श्राविकाएँ थीं। केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् तीन वर्ष कम साढ़े सात लाख वर्ष तक सयोगी केवली अवस्था में विचरण करते रहे।
(श्लोक २९१-२९७) अपना निर्वाण समय निकट जानकर भगवान् ३००० साधुओं सहित सम्मेत शिखर पर गए और अनशन प्रारम्भ किया। एक मास पश्चात् चैत्र शुक्ला पंचमी को चन्द्र जब पुष्य नक्षत्र में अवस्थित था ३००० साधुओं सहित प्रभु अनन्तनाथ ने मोक्ष प्राप्त किया। इन्द्र आए और भगवान् एवं मुनियों का निर्वाण कृत्य सम्पन्न किया।
(श्लोक २९८-३००) प्रभु साढ़े सात लाख वर्ष तक कुमारावस्था में रहे, १५ लाख वर्ष तक राज्याधिपति रूप में रहे और साढ़े सात लाख वर्ष संयम पर्याय में य्यतीत किए। उनकी कुल आयु ३० लाख पूर्व की थी। विमलनाथ स्वामी के निर्वाण से अनन्त स्वामी के निर्वाण पर्यन्त नौ सागरोपम व्यतीत हुए।
(श्लोक ३०१-३०३) पुरुषोत्तम वासुदेव ३० लाख वर्ष की आयु में घोर पाप कर्म के कारण छठे तमःप्रभा नामक नरक में गए। वे ७०० वर्ष कुमारावस्था में, १३०० वर्ष शासक रूप में, ८० वर्ष दिग्विजय में और २९९७९२० वर्ष अर्द्धचक्री के रूप में रहे। (श्लोक ३०४-३०६),
बलदेव सुप्रभ ५५ लाख वर्ष तक पृथ्वी पर रहे। भ्राता की