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करते हैं।
(श्लोक २७४-२७७) 'जीवों के मन वचन और काया की जो प्रवृत्तियां है वही आश्रव है। कारण इस प्रकार से आत्मा में कर्म का आगमन होता है । शुभ प्रवृत्ति पुण्यबन्ध का कारण है और अशुभ प्रवृत्ति पाप-बन्ध का। समस्त प्रकार के आगमनों का निरोध ही संवर है जो विरति और त्याग रूप है । संसार के हेतुभूत कर्म का विनाश ही निर्जरा है।
(श्लोक २७८-२७९) __ 'कषाय के वशवर्ती होकर जीव कर्मयोग्य पूदगल को आश्रव द्वारा ग्रहण करता है। वह जिस प्रकार अपने साथ बांधता है उसे बन्ध कहते हैं। यही बन्ध जीवों की परतन्त्रता का कारण होता है। बन्ध चार प्रकार के होते हैं प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ।'
श्लोक २८०-२८१) 'प्रकृति का अर्थ है स्वभाव । इसके ज्ञानावरणीयादि आठ भेद हैं । यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । मूल प्रकृति ये ही आठ हैं। वद्धकर्म के आत्मा में लगने के काल को स्थिति कहते हैं। वह जघन्य ( कम से कम ) और ( अधिक से अधिक ) होती है।'
___'कर्म के विपाक ( परिणाम ) को अनुभाग कहा जाता है । कर्म के अंश को प्रदेश कहते हैं ।'
(श्लोक २८२-२८३) _ 'कर्म बन्ध के पांच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इन पांचों का अभाव होने से चार घाती कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणोय, मोहनीय और अन्तराय कर्म क्षय हो जाते हैं। जीव तब केवल ज्ञान प्राप्त करता है। बाद के चार होते हैं अघाती कर्म । इनके क्षय हो जाने से जीव मुक्त एवं परम सुखी हो जाता है।'
(श्लोक २८४-२८५) 'समस्त नरेन्द्र असुरेन्द्र व देवेन्द्रगण जो त्रिभुवन में सुख-भोग करते हैं वह मुक्ति व मोक्ष सुख के अनन्त भाग का एक भाग भी नहीं है। इसी भांति तत्व को जो यथार्थ रूप में जानता है वह तैरना जानने वाले व्यक्ति की तरह संसार समुद्र में निमज्जित नहीं होता एवं सम्यक् आचरण से कर्म बन्धन क्षय कर मुक्त और परम सुखी होता है।'
(श्लोक २८६-२८७)