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'समस्त प्रकार के पुद्गल वर्ण गन्ध रस और स्पर्शयुक्त है । जो परमाणु रूप में है वह अबद्ध है, जो स्कन्धरूप है वह बद्ध है | बद्ध पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, अन्धकार, धूप, उद्योत, प्रभा और छाया रूप में परिणत होते हैं । पुद्गल ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म, औदारिक और पांच प्रकार के शरीर, मन, भाषा, गमनादि क्रिया और श्वासोच्छ्वास रूप में भी परिणत होते हैं । ये दुःख, सुख, जीवन और मृत्यु रूप में उपग्रहकारी (निमित्त) होते हैं ।' ( श्लोक २६६-२६८) 'धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं । ये सर्वदा अमूर्त, निष्क्रिय और स्थिर हैं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश एक जीव के प्रदेश की तरह असंख्यात् और समस्त लोकव्यापी है । जीव अजीव जब चलना प्रारम्भ करते हैं तो जल जिस प्रकार मछली के गति करने में सहायक बनते हैं वैसे ही धर्मास्तिकाय उनका सहायक बनता है । क्लान्त पथिक शीतल छाया देखकर जैसे खड़ा हो जाता है उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय गतिशील जीव के रुकने की इच्छा करने पर एवं अजीव को स्थित करने में भी सहायक होता है ।
( श्लोक २६९ - २७२ ) 'आकाशास्तिकाय उपरोक्त धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से बहुत बड़ा है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकव्यापी है; किन्तु आकाशास्तिकाय लोक से अनेक गुणा बड़ा है । यह तो अलोक में भी सर्वत्र व्याप्त है । आकाशास्तिकाय समस्त द्रव्यों का आधार एवं अनन्त प्रदेश युक्त है ।' ( श्लोक २७३ )
'लोकाकाश के प्रदेशों में अभिन्न रूप में रहा हुआ काल का अणु (समय रूपी सूक्ष्म भेद) भावों का परिवर्तन करता है । इसलिए मुख्य रूप में काल पर्याय परिवर्तन ही है ( भविष्य का वर्तमान बनना और वर्तमान का अतीत हो जाना ) । ज्योतिष शास्त्र में समय आदि का जो मान है ( क्षण, पल, मुहूर्त्तादि) वह व्यवहार काल है । संसार में समस्त पदार्थ जो नवीन और जीर्ण अवस्था प्राप्त करता है वह काल का ही प्रभाव है । काल की क्रीड़ा से ही समस्त पदार्थ वर्तमान अवस्था से च्युत होकर अतीत अवस्था को प्राप्त होते हैं और भविष्य से खींचकर उसे वर्तमान में उपस्थित