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ने उसी शिला को हस्ती जैसे पद्मनाल को उठाता है उसी प्रकार सहज ही बाएँ हाथ से अपने ललाट तक उठा लिया । तदुपरान्त उसे यथा स्थान रखकर महाशक्तिशाली द्विपृष्ठ द्वारिका को लौट गए । राजा ब्रह्मा और विजय ने उन्हें सिंहासन पर बैठाया । सभी राजन्य वर्ग अर्द्धची के राज्यारोहण के उत्सव को मनाया ।
( श्लोक २७६ - २८१ ) उधर एक मास पर्यन्त छद्मावस्था में विचरण कर त्रिलोकपति वासुपूज्य जहाँ उनका दीक्षा महोत्सव अनुष्ठित हुआ था उसी विहारगृह उद्यान में लौट आए। वहां जब वे पाटल वृक्ष के नीचे ध्यान में अवस्थित थे तब सूर्योदय जैसे अन्धकार को दूर करता है उसी प्रकार द्वितीय शुक्ल ध्यान के समय घाती कर्म क्षय हो जाने से उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को चन्द्र जब शतभिषा नक्षत्र में अवस्थित था, तब एक दिन के उपवासी प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । ( श्लोक २८२ - २८४) प्रभु ने देव निर्मित समवसरण में बैठकर सूक्ष्म आदि छियासठ गणधरों के सामने देशना दी ।
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( श्लोक २८५ ) उसी समवसरण में उनके शासन देव श्वेतवर्ण हंसवाहन कुमार नामक यक्ष उत्पन्न हुए जिनके दोनों दाहिने हाथों में क्रमश: विजोरा नींबू और तीर था एवं दोनों बाएँ हाथों में नेवला और धनुष था । इस प्रकार कृष्णवर्ण अश्ववाहन चन्द्रा नामक यक्षिणी उनकी शासन देवी के रूप में उत्पन्न हुईं जिनके दोनों दाहिने हाथों में से एक वरद् मुद्रा में और दूसरे में वर्शा था । बाएँ हाथों के एक फूल और दूसरे हाथ में धनुष था । वे सर्वदा भगवान् के पासपास ही रहते थे । ( श्लोक २८६ - २८९ ) उनके साथ पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए भगवान् वासुपूज्य एक दिन द्वारिका के सन्निक्ट पहुंचे । उस समय इन्द्र और देवों ने अशोक वृक्ष सहित वहाँ समवसरण की रचना की । वह अशोक वृक्ष ८४० धनुष ऊँचा था । भगवान् उस अशोक वृक्ष की परिक्रमा देकर तीर्थ को नमस्कार कर पूर्वाभिमुखी रखे हुए सिंहासन पर जाकर बैठ गए । उनकी शक्ति से देवों ने अन्य तीन ओर उनके प्रतिबिम्ब की रचना कर उन्हें स्थापित किया जो कि उनके जैसे ही लग रहे थे । चतुर्विध संघ भी उस समवसरण में यथा स्थान जाकर बैठ गए ।