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तिल निक्षेप करने से जैसे अग्नि प्रज्ज्वलित होती है उसी प्रकार द्विपृष्ठ के इस वाक्य से क्रुद्ध होकर तारक चक्र को अपने मस्तक पर घुमाने लगा। कुछ क्षण आकाश में घुमाकर उस प्रलयकारी मेघ की तरह विद्युत उद्गीर्णकारी चक्र को द्विपृष्ठ पर निक्षेप किया। उस चक्र ने जो कि कौस्तुभ का ही मानो भिन्न रूप हो इस प्रकार नाभि प्रान्त से हरि के वक्ष देश पर आघात किया। उस आघात से मूच्छित होकर द्विपृष्ठ रथ में गिर पड़े। यह देखकर विजय अपने वस्त्र प्रान्त से उन्हें हवा करने लगे। कुछ देर में ही संज्ञा लौट आने पर, उस मन्त्री की तरह जिसके साथ थोड़ी देर पहले ही विवाद हुआ था; किन्तु वह पुनः लौट आया हो उस प्रकार उस चक्र को धारण किया और तारक से बोले-'यह चक्र ही तुम्हारा आधार था। इसकी शक्ति तो तुमने देख ही लो है अतः अब अपने प्राण बचाओ और युद्ध क्षेत्र का परित्याग करो। जीवित रहने पर बहुत कुछ देखोगे।'
(श्लोक २६४-२६९) तारक बोला-'मैंने चक्र फेंका था। कुक्कूर जैसे निक्षिप्त ढेले को उठा लेता है उसी प्रकार चक्र को उठा कर तुम और क्या कर सकते हो ? करो, मुझ पर चक्र निक्षेप करो। मैं उसे पकड़ कर या हाथों के आघात से ही मिट्टी के ढेले की तरह चूर-चूर कर
(श्लोक २७०-२७१) घूर्णायमान सूर्य की तरह वासुदेव ने उस चक्र को घुमाकर खेचरों को भयाक्रान्त करते हुए प्रतिवासुदेव पर छोड़ दिया। पद्मनाल की तरह वह चक्र तारक का सिरच्छेद कर पुनः वासूदेव के हाथ में लौट आया। द्विपृष्ठ पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई और तारक पर बरसा उसके अन्तःपुर की रमणियों का अश्रुजल । जितने भी राजा लोग तारक के पक्ष में थे अब अधिक शक्तिशाली के सम्मुख नत होकर द्विपृष्ठ से अपना बचाव किया। शक्तिशाली से ऐसा करना ही लाभजनक है।
(श्लोक २७२-२७५) विराट सैन्यवाहिनी से परिवृत्त होकर द्विपृष्ठ ने केवल युद्धयात्रा करके ही समग्र दक्षिण भरतार्द्ध को जय कर लिया। उन्होंने एक सामन्त की तरह सहज ही मगध, वरदाम और प्रभासपति को जीत लिया। युद्ध जय कर वे मगध गए जहाँ एक वृहद् प्रस्तर शिला जिसे कि एक कोटि मानव उठा सकते थे शत्रुनाशकारी द्विपृष्ठ