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मध्य प्राकार के मध्य पशु और बाहरी प्राकार के मध्य वाहन रखे गए । ( श्लोक २९० - २९४ ) राजा के अनुचरों ने यह संवाद आनन्द विस्फारित नेत्रों से द्विपृष्ठ को जाकर बताया कि समवसरण में प्रभु आए हैं । वासुदेव ने उसे साढ़े बारह कोटि रौप्य दान किया और विजय सहित प्रभु के समवसरण में गए । उन्हें प्रदक्षिणा देकर एवं वन्दना कर बलराम सहित वे इन्द्र के पीछे जा बैठे । त्रिलोकपति को पुनः वन्दना कर इन्द्र, द्विपृष्ठ और विजय ने निम्नलिखित स्तुति की :
( श्लोक २९५ - २९८ ) 'एक ओर जैसे दुर्दिन की भयंकर आबोहवा है दूसरी ओर वैसे ही समुद्र - तरंगों की तरह नवीन-नवीन आशाओं का मोहजाल है । एक ओर समुद्र - दानव की तरह मीन केतन हे दूसरी ओर प्रतिकूल हवा की भाँति दुर्दम इन्द्रिय विषय हैं । एक ओर काम क्रोधादि रूप घूर्णित आवर्त है दूसरी ओर द्वेषादिरूप पर्वत का विवर है । एक ओर विशाल तरंगों की तरह दुर्भाग्य है अन्य ओर बड़वानल की तरह दुःखदायक आर्त्तध्यान है । एक ओर लता की तरह वेष्टनकारी स्वार्थान्धता है अन्य ओर क्रूर कुम्भी की तरह रोग-ताप है । हे भगवन्, अपार इस संसार सागर में बहुत काल से पतित मनुष्यों का उद्धार करें । वृक्ष के फूल और फलों की भाँति आपका केवल ज्ञान और दर्शन, हे त्रिलोकीनाथ, अन्य के उपहार के लिए है । आज हमारा जन्म सार्थक हुआ है, हमारा कुल सार्थक हुआ है कारण आज हमें आपकी वन्दना करने का सौभाग्य मिला है ।'
( श्लोक २९९-३०६)
इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र बलराम और वासुदेव निवृत्त हुए । तदुपरान्त भगवान् वासुपूज्य ने निम्नलिखित देशना दी :
'इस अपार संसार रूपी समुद्र में जूआ और शमिला के संयोग की तरह धर्मानुष्ठान के लिए मनुष्य भव- प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । जिन प्रवक्त धर्म ही संसार में सर्वश्रेष्ठ है - कारण इसका अवलम्बन लेने वाला कभी संसार सागर में नहीं डूबता । यह धर्म संयम, सत्य, शौच, ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहता, तप, क्षमा, मृदुता, सरलता और निर्लोभता रूप दस प्रकार का है । धर्म के प्रभाव से जो कुछ चाहा जाता है वही पाया जाता है । ऐसा कल्पवृक्ष भी मिल जाता है जो
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