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अनुचरों सहित युद्ध क्षेत्र में उपस्थित हुआ। उसने वाण-वर्षण से शत्रु-सैन्य को एवं सेना के पैरों से उड़ी धूल से आकाश को ढक दिया। मुहूर्त भर में वह सिंह जैसे हस्ती समूह में प्रवेश कर उनकी हत्या करता है उसी प्रकार शत्रु सैन्य में प्रवेश कर उन्हें यम के मुख में भेजने लगा। अप्रतिहत वह विन्ध्यशक्ति की सेना को वायु जिस प्रकार वृक्षों को उखाड़ फेंकता है उसी प्रकार उखाड़ने लगा । अपनी सेना को ध्वंस होते देख दीर्घबाह विन्ध्यशक्ति अपने शत्रु-सैन्य को ध्वंस करने के लिए प्रलयकाल की रात्रि के सहोदर यम की तरह उठ खड़ा हुआ। सर्प जिस प्रकार गरुड़ के आक्रमण को प्रतिहत नहीं कर सकता, हरिण सिंह का उसी प्रकार राजा पर्वत विन्ध्यशक्ति के उस आक्रमण को प्रतिहत नहीं कर सका।
__ (श्लोक १७१-१८०) अपनी सेना को छिन्न-भिन्न होते देख पर्वत युद्ध करने के लिए जैसे ही आगे आया तो अपने को दण्ड और भुजदण्ड पर अभिमानी विन्ध्यशक्ति ने उस पर आक्रमण किया। परस्पर युद्ध करने के अभिलाषी वे दोनों राजा लौहतीर, तद्वल (सूक्ष्मतीर), यम के दन्त से अर्द्ध चंद्रतीरों का प्रयोग करने लगे। वे दोनों अपने-अपने विपक्षियों के रथ, अश्व और सारथियों को निहत करने लगे मानो वे अपनी पराजय का ऋण चुका रहे हों। तदुपरान्त अन्य रथ पर चढ़कर पृथ्वी के प्रत्यन्त पर दोनों पर्वत-सा पर्वत और विन्ध्यशक्ति एक दूसरे के सम्मुखीन हुए। अन्ततः राजा विन्ध्यशक्ति ने अपनी समस्त शक्ति लगाकर पर्वत को विषहीन सर्प की तरह अस्त्रहीन व शक्तिहीन कर दिया। विन्ध्यशक्ति से पराजित वृहद हस्ती द्वारा पराजित छोटे हस्ती की तरह बगैर पीछे देखे पर्वत भाग छूटा । तब विन्ध्यशक्ति ने गणिका गुणमञ्जरी सहित पर्वत का राज्य, वैभव, हस्ती आदि ग्रहण कर लिया। कारण, वैभव उसी का होता है जो शक्तिशाली होता है। अपना कार्य समाप्त कर विन्ध्यशक्ति युद्ध रूपी महासमुद्र से जलपूर्ण मेघ की तरह विन्ध्यपुर में लौट गया।
(श्लोक १८१-१८४) शिकार पर टूट पड़ने के पश्चात् भी शिकार को प्राप्त न कर सकने वाले बाघ की तरह, वृक्ष-शाखा से पतित बन्दर की तरह, युद्ध में पराजित पर्वत ने लज्जित होकर आचार्य सम्भव से श्रमण