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[१६५ प्रदान करें। गणिकाओं के आदान-प्रदान में कोई बुराई नहीं।'
(श्लोक १५२-१५५) मन्त्री की यह बात सुनकर लगुड़ाइत सर्प की तरह राजा पर्वत क्रुद्ध हो उठा । क्रोध से उसके ओष्ठ कांपने लगे । वह बोला :
(श्लोक १५६) 'तुम क्यों, मेरी प्राणों से भी प्रिय गुणमंजरी को लेना चाहता है उस निष्ठर विन्ध्यशक्ति को मेरा भाई कह रहे हो? जिसे छोड कर मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता उसे वह लेना चाहकर मेरा जीवन ही लेना चाह रहा है। गुणमञ्जरी की बात तो दूर मैं उसे एक क्रीतदासी भी नहीं दूंगा। वह अपनी शक्ति को समझ कर चाहे मेरा मित्र रहे या शत्रु बने । उठो, जाओ, जो यथार्थ है वह तुम्हारे स्वामी से जाकर कहो। कारण, राजाओं के दूत यथार्थ ही बोलते हैं।'
___ (श्लोक १५७-१६०) मन्त्री उठा, इधर-उधर देखा और अपने यान पर चढ़ गया। शीघ्र ही वह विन्ध्यशक्ति के पास पहुंचा और जो कुछ घटित हुआ विस्तृत रूप में कह सुनाया। सब कुछ सुनकर विन्ध्यशक्ति हविः निक्षेप से अग्नि की तरह क्रोध से प्रज्वलित हो उठा। पर्वत की भांति मानो विन्ध्यशक्ति दीर्घकाल का बन्धुत्व भंग कर समुद्र जिस प्रकार अपनी तटभूमि पर आता है उसी प्रकार वह राजा पर्वत के राज्य में पहुंचा । पर्वत भी यान और सैन्यदल लेकर उसके सम्मुखीन हआ। वीरों का मिलन शत्रुता के कारण होने पर भी मित्र की तरह ही होता है। बहुत दिनों के पश्चात् हाथ की खाज मिटाने की औषधि-सा युद्ध दोनों दलों की अग्रगामी सेना में प्रारम्भ हो गया। क्रीडांगण में युद्धरत हस्तियों की तरह वे कभी आगे आते कभी पीछे हटते। सूत्र में पोए रत्नों की तरह वरछीविद्ध सैनिक 'हम' कहकर बिना गिरे शत्र के आगे बढ़ गए । श्रेष्ठ धनुर्धारियों द्वारा अनवरत वाण-वर्षा से युद्धक्षेत्र शरवन-सा लगने लगा। लौह मुद्गर, गदा, तोमर जो कि सर्प की तरह शत्रु का जीवन ले रहा था उनके उत्पतन से आकाश आवृत्त हो गया। दोनों पक्षों में चन्द्र-कौमुदी की तरह कभी इस पक्ष की तो कभी उस पक्ष की सामयिक जय से वह बराबर हो गई।
(श्लोक १६१-१७०) तब पर्वत अपने धनुष पर टङ्कार करता हुआ रथ पर चढ़कर