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दीक्षा ग्रहण कर ली । उसने दीर्घ तपश्चर्या कर यह निदान किया कि अगले जन्म में मैं विन्ध्यशक्ति को पराजित करने वाला बनूँ । रत्न के विनिमय में तुषक्रय की भाँति इस निदान ने उनकी समस्त तपश्चर्या को विफल कर दिया । वे अनशन द्वारा देह त्यागकर प्राणत नामक स्वर्ग में देव रूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक १८५-१८८ ) विन्ध्यशक्ति ने दोर्घ दिनों तक संसार अरण्य में भ्रमण कर एक जन्म में जैन धर्म अङ्गीकार किया व मृत्यु के उपरान्त कल्पोत्पन्न देव रूप में उत्पन्न हुए। वहां से च्यवकर वे विजयपुर के राजा श्रीधर और रानी श्रीमती के तारक नामक पुत्र रूप में जन्मे । वे सत्तर धनुष दीर्घ काजल से कृष्णवर्णीय और अमित बल के अधिकारी हुए । उनका आयुष्य बहत्तर लाख वर्ष था । पिता की मृत्यु के पश्चात् उन्हें चक्र प्राप्त हुआ फलतः उन्होंने अर्द्ध भरत जय किया । कारण, प्रतिवासुदेव अर्द्ध भरत के अधिकारी होते हैं ।
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( श्लोक १८९ - १९२) सौराष्ट्र की मुख मण्डन रूप द्वारिका नामक एक नगरी थी जिसके प्राकार मूल को पश्चिम समुद्र सदैव धौत करता। वहां के राजा ब्रह्मा थे । उनकी शक्ति अक्षीण थी । उन्होंने इन्द्र के प्रतिस्पर्धी के रूप में सभी को अवदमित किया था । सुभद्रा और उमा नामक उनकी दो पत्नियां थीं । लवण समुद्र की जिस प्रकार गङ्गा और सिन्धु दो प्रधान नदियां हैं उसी प्रकार उनके अन्तःपुर में सुभद्रा और उमा दो प्रधान थीं । मन्मथ जिस प्रकार रति और प्रीति के साथ रमण करते हैं उसी प्रकार वे उन दोनों रानियों के साथ रमण करते थे । ( श्लोक १९३ - १९६ ) पवनवेग का जीव अनुत्तर विमान से च्युत होकर रानी सुभद्रा के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । सुख शय्या पर सोई रानी सुभद्रा ने बलराम के जन्मसूचक चार महास्वप्न देखे । गङ्गा जिस प्रकार श्वेत कमल को, पूर्व दिशा जिस प्रकार चन्द्रमा को जन्म देती हैं उसी प्रकार उन्होंने यथासमय स्फटिक से स्वच्छ एक पुत्र को जन्म दिया । राजा ब्रह्मा ने बन्दियों को मुक्त करना आदि कार्य कर पृथ्वी को आनन्दित किया और पुत्र का नाम रखा विजय । विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त पांच धात्रियों द्वारा लालिन होकर वे अपने देह - सौन्दर्य के साथ क्रमशः बड़े होने लगे । खेलने के साथ हिलते हुए कर्णाभूषणों