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नहीं डरता ? विद्या के अतिरिक्त अश्वग्रीव से आपलोग किसी अंश में कम नहीं हैं। फिर भी आप उसका वध करने में समर्थ बनें मेरी यही कामना है। उसके विद्याजात अस्त्र-शस्त्रों को आप लोग व्यर्थ कर सकें इसके लिए आप लोगों को विद्या अधिगत करने की चेष्टा करनी चाहिए। वे दोनों इससे सम्मत हुए। (श्लोक ५७०-५७८) ज्वलनजटी आनन्दित होकर श्वेत वस्त्र धारण कर ध्यान से उन्हें विद्याओं की शिक्षा देने लगा । सात रात तक एकाग्रचित्त होकर दोनों भाइयों ने मन्त्रोच्चार करते हुए मन्त्रों की साधना की। सातवें दिन नागराज का आसन कम्पित होने पर ध्यानमग्न अचल और त्रिपृष्ठ के निकट विद्याएँ उपस्थित हुईं। यथा-गारुडी, रोहिणी, भुवनक्षोभिणी, कृपाणस्तम्भिनी, स्थामशुम्भनी, व्योमचारिणी, तमिस्रकारिणी, वेगाभिगामिनी, वैरीमोहिनी, दिव्यकामिनी, रन्ध्रवासिनी, कृशानुवर्षिणी, नागवासिनी, वारिशोषणी, धरित्रीवारिणी, बन्धनमोचिनी, विमुक्तकुन्तला, नानारूपिणी, लौहशृङ्खला, कालराक्षसी, छत्रदशदिका, तीक्ष्णशूलिणी, चन्द्रमौली, रक्षमालिनी, सिद्धताड़निका, पिंगनेत्रा, वचनपेशला, ध्वनिता, अहिफणा, घोषिणी और भीरू भीषणा। वे बोलीं-'अब हम आपके वशीभूत हैं ।' विद्या वशीभूत होने पर दोनों भाइयों ने ध्यान तोड़ा । गुण द्वारा सब कुछ आकर्षित होता है, महामनाओं को क्या प्राप्त नहीं होता ? (श्लोक ५७९-५८८)
तदुपरान्त अचलकुमार सहित त्रिपृष्ठकुमार एक शुभ दिन देखकर प्रजापति, ज्वलनजटी और वृहद् सैन्यदल को लेकर युद्ध के लिए रवाना हुए। उनके अश्व बाज की तरह तीव्र गति सम्पन्न थे, रथ शत्रुओं को दलन करने में विजयश्री के निवास रूप थे, हस्ती मदस्राव से उल्लसित मानो देव-हस्ती हों और श्रेष्ठ पदातिक व्याघ्र की भाँति लपकते थे। समस्त आकाश (विद्याधरों द्वारा)
और पृथ्वी (मनुष्यों द्वारा) को आच्छन्न कर अपनी प्रजा और शुभ शकुनों से प्रोत्साहित होकर ह्रस्वा और वहतिनाद में बजाए वादित्रों से आकाश को विदीर्ण करते हुए, सैन्यवाहिनी के पदभार से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वासुदेव त्रिपृष्ठ जिनके रथ-चक्र से पृथ्वी पिसी जा रही थी। अपने राज्य के सीमान्त स्तम्भ तुल्य रथावर्त पर्वत के निकट आकर उपस्थित हो गए।
(श्लोक ५८९-५९४)