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धारण करने पर पुरोहित ने उसके ललाट पर तिलक रचना की । राजाओं के तिलक स्वरूप चारणों द्वारा प्रशंसित होकर छत्र - चामर सहित उसने ऐसे हाथी पर आरोहण किया जिसके मद-जल से पृथ्वी सिंचित हो रही थी । ( श्लोक ५५५ - ५६१) अश्वग्रीव ने दुर्दम हस्ती, अश्व और रथों की अपरिमित सैन्य लेकर पर्वत को प्रकम्पित करते हुए युद्धयात्रा प्रारम्भ की । जातेजाते सहसा उसका छत्रदण्ड तेज हवा से आंधी में गिरे वृक्ष की तरह टूट गया और छत्र मस्तक से उसी प्रकार जमीन पर गिर पड़ा जैसे वृक्ष से फूल और आकाश से नक्षत्र गिरता है । साथ ही साथ हस्ती का मद झरना भी बन्द हो गया । वापियाँ ज्येष्ठ मास की वापी की तरह सूख गईं और शरद्कालीन कर्दम की तरह कीचड़मय हो गई । हस्ती मानो मृत्यु को सम्मुख देख रहे हों इस प्रकार भय से पेशाब करते हुए चिंग्घाड़ने लगे । वह अपना माथा सीधा रख नहीं पा रहा था । रजोवृष्टि, रक्तवृष्टि, दिन में तारा-दर्शन, उल्कापात, विद्युत चमक आदि उत्पात होने लगे । कुत्ते मुँह ऊँचा कर रोने लगे और शकुन मस्तक पर चक्राकार वृत्त रचना करने लगे । कपोत ध्वजा पर आ बैठा । इस भाँति के अनेक अपशकुन होने लगे । ( श्लोक ५६२ - ५६९ )
अश्वग्रीव इन सब अपशकुनों और प्राकृतिक संकेतों की उपेक्षा कर अग्रसर होने लगा मानो यमपाश में बँधा बढ़ रहा हो । उसके साथ जो विद्याधर थे वे साहस खोने लगे और राजागण भी युद्धविमुख होने लगे मानो स्वतन्त्र होने पर भी क्रीतदास की तरह उन्हें यहाँ लाया गया हो । कुछ दिनों की यात्रा के पश्चात् ही समग्र वाहिनी रथावर्त्त पर्वत के निकट आ पहुंची । अश्वग्रीव के आदेश से विद्याधर वाहिनी ने वैताढ्य पर्वत की अधित्यका की तरह रथावर्त पर्वत की अधित्यका में छावनी डाली । इधर पोतनपुर में विद्याधरराज ज्वलनजटी ने त्रिपृष्ठ और अचलकुमार से कहाशारीरिक शक्ति में तो आपका प्रतिद्वन्द्वी कोई नहीं है । किन्तु स्नेहजात भय से भयभीत हूं । कारण स्नेह जहाँ भय नहीं वहाँ भी भय की संभावना से भीत हो जाता है । मैं भी उसी प्रकार स्नेह से भीत होकर बोल रहा । उद्ग्रीव अवीव अपनी विद्या के कारण हठी दुर्द्धर्ष है और बहुत से युद्ध में जयलाभकारी हुआ है । उससे कौन
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