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गंगातट पर जाता है उसी प्रकार कुलकर नाभिपत्नी मरुदेवी के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । उस समय मुहूर्त भर के लिए प्राणिमात्र के दुःख का उच्छेद हुआ । अतः तीनों लोक में सुख और उद्योत का प्रकाश हुआ । (श्लोक २०७ - २११)
जिस रात्रि में भगवान् च्युत होकर माता के गर्भ में प्रविष्ट हुए उस रात्रि में प्रासाद में प्रसुप्त मरुदेवी ने चौदह महास्वप्न देखे | प्रथम स्वप्न में उन्होंने उज्ज्वल स्कन्धयुक्त, दीर्घ और सरल पुच्छ विशिष्ट, सुवर्ण घण्टिका पहने हुए विद्युतसह शरत्कालीन मेघ-सा वृषभ देखा | ( श्लोक २१२ - २१३ ) द्वितीय स्वप्न में श्वेतवर्ण, क्रमशः उन्नत, निरन्तर प्रवहमान मदधारा से रमणीय, संचरमान कैलाश पर्वत तुल्य, चार दन्तयुक्त हस्ती देखा |
तृतीय स्वप्न में पीतचक्षु, दीर्घ जिह्वा, चपल केशरयुक्त, वीर की जय ध्वजा सी पुच्छ उल्लंघनकारी केशरी देखा |
( श्लोक २१४ - २१५) चतुर्थ स्वप्न में कमलवासिनी, पद्मानना, दिग्गज क क पूर्ण कुम्भ द्वारा प्रभिसिंचमाना लक्ष्मी देवी देखी ।
पंचम स्वप्न में देवद्रुम के पुष्पों से गूँथी हुई, सरल और धनुर्धारी के प्रारोपित धनुष की भांति दीर्घ पुष्पमाला देखी । ( श्लोक २१६-२१७ )
षष्ठ स्वप्न में जैसे अपने मुख का प्रतिबिम्ब और आनन्द का कारण रूप एवं कान्ति द्वारा जो दिक्समूह को प्रकाशित करता है ऐसा चन्द्रमण्डल देखा । (श्लोक २१८ ) सप्तम स्वप्न में रात्रि के समय भी दिन का भ्रम उत्पन्न करने वाला, तमोनाशक, प्रसारित प्रभा सूर्य देखा । (श्लोक २१९) अष्टम स्वप्न में चपल कर्ण से हस्ती जिस प्रकार शोभा पाता है उसी प्रकार घण्टिका पंक्ति से समृद्ध और आन्दोलित पताका शोभित महाध्वजा देखी । ( श्लोक २२० ) नवम स्वप्न में विकसित पद्म से अर्चित मुखबाला, समुद्र मंथन से निकले हुए सुधापात्र की तरह जलपूर्ण स्वर्ण कलश देखा ।
( श्लोक २२१)