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प्रसेनजित उन तीन नीतियों से ( हाकार, माकार, धिक्कार ) युगलिकों को दण्ड देकर अपने वश में रखने लगे ।
( श्लोक १९२ - १९४)
कुछ समय पश्चात् जब युग्म दम्पति की आयु सामान्य प्रवशेष रही तब चन्द्रकान्ता ने स्त्री-पुरुष रूप एक युगल को जन्म दिया । उनकी लम्बाई साढ़े पांच सौ धनुष थी और वे वृक्ष और छाया की तरह क्रमशः बढ़ने लगे । वे युगल मरुदेव और श्रीकान्ता नाम से लोगों में प्रसिद्ध हुए । सुवर्ण तुल्य कान्ति सम्पन्न मरुदेव अपनी प्रियंगुलता तुल्य प्रिया के साथ नन्दन वन की वृक्ष श्रेणियों से कनकाचल (मेरु) जैसे शोभित होता है वैसे ही शोभित होने लगे ।
आयु पूर्ण होने पर प्रसेनजित द्वीपकुमार और चक्षुकान्ता नागकुमार देवलोक में उत्पन्न हुए । ( श्लोक १९५-१९९) मरुदेव प्रसेनजित की ही दण्डनीति से इन्द्र जैसे देवताओं को वश में रखता है उसी प्रकार युगलियों को दण्ड देकर अपने वश में रखते थे । ( श्लोक २०० )
आयु पूर्ण होने में जब थोड़ा समय बाकी रहा तब श्रीकान्ता ने एक युगल को जन्म दिया । पुत्र का नाम नाभि और कन्या का नाम मरुदेवा रखा गया। पांच सौ धनुष देह वाले वे क्षमा और संयम की भांति बढ़ने लगे । मरुदेवा प्रियंगुलता की भांति श्रीर नाभि सुवर्ण से कान्ति सम्पन्न थे । इससे वे सबको अपने पिता के प्रतिबिम्ब से लगते । उनकी आयु अपने माता-पिता मरुदेव और श्रीकान्ता की आयु से कुछ पूर्व कम थी । ( श्लोक २०१ - २०४ ) श्रीकान्ता नागकुमार
( श्लोक २०५ )
मृत्यु के पश्चात् मरुदेव द्वीपकुमार और देवलोक में उत्पन्न हुई ।
मरुदेव के पश्चात् राजा नाभि युगलियों हुए। वे भी उपर्युक्त तीन नीतियों से युगलियों को
के सप्तम कुलकर दण्ड देने लगे ।
( श्लोक २०६ )
तृतीय आरे का जब चौरासी लाख पूर्व और उन्यासी पक्ष बाकी था तब प्राषाढ़ कृष्णा चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में चन्द्रयोग आने पर वज्रनाभ का जीव तैंतीस सागरोपम ग्रायु पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत होकर हंस जैसे मानसरोवर से