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उनके एक युगल पुत्र और कन्या ने जन्म लिया । उन्होंने पुत्र का नाम अभिचन्द्र रखा । कारण, वह चांद की भांति उज्ज्वल वर्ण का था और कन्या का नाम प्रतिरूपा रखा क्योंकि वह देखने में प्रियंगुलता की भांति कान्तिसम्पन्न थी । वे अपने माता-पिता से कम आयु सम्पन्न और साढ़े छह सौ धनुष ऊँचे थे । एक साथ मिले हुए शमी और वटवृक्ष की भांति वे बड़े होने लगे । गंगा और यमुना मिलित प्रवाह की तरह दोनों निरन्तर शोभित होने लगे । (श्लोक १७९-१८३) आयु पूर्ण होने पर यशस्वी उदधि कुमार और सुरूपा नाग कुमार भुवनपति देव निकाय में उत्पन्न हुए । ( श्लोक १८४ ) अभिचन्द्र भी अपने पिता की तरह दोनों नीति से दण्ड देने
लगे । अन्तिम अवस्था में प्रतिरूपा ने एक युगल को इस प्रकार जन्म दिया जैसे ग्रनेक प्राणियों की प्रार्थना पर रात्रि चन्द्रमा को जन्म देती है । माता-पिता ने पुत्र का नाम प्रसेनजित रखा और सभी के नेत्रों को प्रिय लगने के कारण कन्या का नाम चक्षुकान्ता रखा । वे दोनों माता-पिता की अपेक्षा कम ग्रायु सम्पन्न तमाल वृक्ष की भांति श्याम कान्ति एवं बुद्धि और उत्साह की तरह एक साथ बढ़ने लगे । उनकी लम्बाई छह सौ धनुष और विषुवत् रेखा पर जिस तरह रात और दिन समान होते हैं उसी प्रकार वे समान प्रभा सम्पन्न थे । ( श्लोक १८५- १८९ ) मृत्यु के बाद अभिचन्द्र उदधिकुमार और प्रतिरूपा नागकुमार लोक में उत्पन्न हुए । ( श्लोक १९० ) प्रसेनजित समस्त युगलों के राजा हुए। कारण, प्राय: महात्मायों के पुत्र महात्मा ही होते हैं । ( श्लोक १९१ )
कामान्ध व्यक्ति जिस प्रकार लज्जा और मर्यादा का उल्लंघन करता है उसी प्रकार उस युग के युगलिए हाकार और माकार दण्ड नीति की उपेक्षा करने लगे । तब प्रसेनजित के अनाचार रूप महाभूत को भयभीत करने के लिए मन्त्राक्षर की भांति तृतीय धिक्कार ( धिक् तुमने ऐसा किया) नीति को अपनाया । महावत जिस प्रकार तीन अंकुश से हाथी को वशीभूत रखता है उसी प्रकार कुशल प्रयोगी