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और चन्द्रकान्ता रखा । एक साथ अंकुरित वृक्ष और लता की भांति वे एक साथ बड़े होने लगे । ( श्लोक १६५ - १६७ ) छह मास तक निज सन्तान का पालन विमलवाहन और उसकी स्त्री ने बिना वार्द्धक्य के बिना किसी रोग से पीड़ित हुए मृत्यु को प्राप्त किया । विमलवाहन सुवर्ण कुमार देवलोक में और उसकी स्त्री चन्द्रयशा नाग कुमार देवलोक में उत्पन्न हुई । चन्द्र अस्तमित होने पर चन्द्रिका भी नहीं रहती ।
वहां से वह हस्ती भी पूर्ण प्रायु होने पर नागकुमार देवलोक नागकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ । काल का माहात्म्य ही ऐसा (श्लोक १६८-१७० ) अपने पिता विमलवाहन की भांति चक्षुष्मान भी हाकार नीति से युगलिकों की मर्यादा की रक्षा करने लगे । ( श्लोक १७१)
में
है ।
मृत्यु समय निकट आने पर चक्षुष्मान के भी चन्द्रकान्ता द्वारा यशस्वी और सुरूपा नामक युगल पुत्र और कन्या का जन्म हुप्रा । द्वितीय कुलकर की भांति ही उनके संहनन और संस्थान थे । आयु अवश्य उनसे कम था । आयु और बुद्धि की भांति वे दोनों बढ़न लगे । वे साढ़े सात सौ धनुष दीर्घ थे । इसीलिए वे दोनों जब एक साथ बाहर निकलते तोरण के स्तम्भ की भांति लगते ।
( श्लोक १७२ - १७४ ) आयु शेष होने पर मृत्यु प्राप्त कर चक्षुष्मान सुवर्णकुमार और चन्द्रकान्ता नागकुमारों के मध्य उत्पन्न हुए । ( श्लोक १७५ ) यशस्वी कुलकर अपने पिता की तरह गोप जैसे गायों की रक्षा करता है उसी प्रकार सहज रूप में युगलियों का पालन करने लगे; लेकिन उनके समय लोग 'हाकार' दण्ड का इस प्रकार उल्लंघन करने लगे जैसे मदमस्त हाथी अंकुश की उपेक्षा कर देता है । तब यशस्वी ने उन्हें 'माकार' (तुम ऐसा मत करो ) दण्ड से दण्डित करना प्रारम्भ किया । एक ओषधि से यदि व्याधि दूर नहीं होती है तब दूसरी ौषधि का प्रयोग करना उचित है । महामति यशस्वी अरूप अपराधी को हाकार नीति एवं अधिक अपराधकारी को 'माकार' नीति से दण्ड देने लगे । ( श्लोक १७६ -१७८ ) यशस्वी और सुरूपा की आयु भी जब अरूप रह गई तो जिस प्रकार विनय और बुद्धि एक साथ जन्म ग्रहण करते हैं उसी प्रकार