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विशिष्ट, सम चतुरस्र संस्थान युक्त हुई । मेघ माला से मेरु पर्वत जिस प्रकार शोभा पाता है उसी प्रकार जाति सुवर्ण की सी कान्सि विशिष्ट युग्मधर्मी ( सागरचन्द्र का जीब) प्रियंगुवर्णा स्त्री के द्वारा शोभित हुआ । ( श्लोक १३७-१३९)
अशोकदत्त ने भी पूर्व जन्म कृत कपट के कारण श्वेत वर्ण का चार दांत वाला देव हस्ती सा हाथी बनकर जन्म ग्रहण किया । एक बार इधर उधर विचरण करते हुए उसने अपने पूर्व जन्म के
मित्र युगल रूप उत्पन्न सागरचन्द्र को देखा ।
( श्लोक १४०-१४१ )
बीज से जैसे अंकुर उद्गत होता है उसी प्रकार मित्र-दर्शन के अमृत से सिंचित उस हस्ती के शरीर में स्नेह अंकुरित हुआ । तब उसने सू ंड से उसका ग्रालिंगन किया श्रौर उसकी इच्छा न रहते हुए भी उसे उठाकर कंधे पर बैठा लिया। एक दूसरे को देखने के अभ्यास के कारण दोनों को उस समय पूर्व किए हुए कार्य की भांति पूर्व जन्म की स्मृति हो श्रई । ( श्लोक १४२-१४४) उस समय चार दांत विशिष्ट हस्ती के स्कन्ध स्थित सागर चन्द्र को अन्यान्य युगलिकगरण विस्फारित नेत्रों से इन्द्र की तरह देखने लगे । वह शंख, कुन्द और चन्द्र की भांति विमल हस्ती के ऊपर बैठा था इसलिए उन लोगों ने उसे विमल वाहन कहकर ग्रभिहित किया । जाति स्मरण ज्ञान से नीतिशास्त्र ज्ञान होने के कारण, विमल हस्ती पृष्ठ पर प्रारोहण करने के कारण और स्वाभाविक सौन्दर्य सम्पन्न होने के कारण वह सबका सम्मानीय हो गया । ( श्लोक १४५ - १४७ )
कुछ समय व्यतीत होने पर चरित्र भ्रष्ट यतियों की तरह कल्पवृक्षों का प्रभाव कम होने लगा । मद्यांग कल्पवृक्ष अल्प और विरस मद्य देने लगे मानों वे पहले के कल्पवृक्ष नहीं हैं, दुर्दैव ने मानो उनकी जगह अन्य कल्पवृक्ष रोपण कर दिया हो । भृतांग कल्पवृक्ष दूँ या नहीं दूँ इस प्रकार विचार करते हुए प्रार्थना करने पर भी देर से पात्र देने लगे । तूर्यांग कल्पवृक्ष इस प्रकार संगीत परिवेशन करने लगे जैसे उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर पारिश्रमिक दिए बिना बैठा दिया हो । दीपशिखा और ज्योतिशिखा कल्पवृक्ष बार-बार प्रार्थना करने पर भी पूर्व की भांति प्रालोक नहीं देतेदिन के समय दीपशिखा का आलोक जिस प्रकार होता है वैसा