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पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्र में समय का निर्णायक बारह आरे का एक काल-चक्र होता है । इस कालचक्र के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद हैं । अवसर्पिणी काल छह भाग या प्रारों में विभक्त है । यथा
१ सुषमा - सुषमा - यह प्रारा चार कोटा कोटि सागरोपम का । २ सुषमा - यह प्रारा तीन कोटा कोटि सागरोपम का ।
३ सुषमा - दुःषमा -- यह आरा दो कोटा कोटि सागरोपम का ।
४ दुःषमा - सुषमा - यह आरा बयालीस हजार कम १ कोटा कोटि सागरोपम का ।
५ दुःषमा - यह प्रारा इक्कीस हजार वर्ष का ।
६ दुःशमा - दुःषमा - यह आरा भी इक्कीस हजार वर्ष का ।
जिस प्रकार अवसर्पिणी के प्रारों के विषय में कहा गया है विपरीत क्रम से छह प्रारे होते दुःषमा - सुषमा, सुषमा दुःषमा, और उत्सर्पिणी काल संख्या इसी को कालचक्र कहा जाता ( श्लोक १११ - ११७ )
उसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी इसके हैं (अर्थात् दुःषमा दुःषमा, दुःषमा, सुषमा, सुषमा - सुषमा ) । श्रवसर्पिरगी कुल बीस कोटा कोटि सागरोपम है । हैं ।
प्रथम प्रारे में मनुष्य की आयु तीन पल्योपम होती है, शरीर तीन कोश लम्बा होता है । वे चौथे दिन आहार ग्रहण करते हैं । समचतुरस्र संस्थान सम्पन्न सर्व सुलक्षणा युक्त वज्र ऋषभ नाराच संहनन विशिष्ट और सर्वदा सुखी होते हैं । वे क्रोधरहित, मानरहित, निष्कपट और निर्लोभी स्वभाव के अधर्म परिहारी होते हैं । उत्तर कुरु की भांति उस समय ग्रहोरात्र उनकी इच्छा पूर्णकारी मद्यांगादि इस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं
१ मद्यांग नामक कल्पवृक्ष इच्छाभाव से ही मद्यांग देते हैं ।
२ भृतांग नामक कल्पवृक्ष भण्डार की तरह पात्र देते हैं । ३ तूर्यांग नामक कल्पवृक्ष तीन प्रकार के वाद्य यन्त्र देते हैं । ४-५ दीपशिखा और ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष ग्रालोक दान
करते हैं ।
६ चित्रांग नामक कल्पवृक्ष विभिन्न वर्ण के पुष्प - मालादि देते हैं । ७ चित्ररस नामक कल्पवृक्ष रसोइए की भांति नानाविध खाद्य देते हैं ।