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[७५ नष्ट न करे । अथवा यह भी ठीक नहीं है । कारण, मैंने जब उसकी इच्छा पूर्ण नहीं की है तब क्यों उसके दुःशील की बात कहकर तुम्हारे घाव पर नमक निक्षेप करू । यही सब सोचता हुआ जा रहा था तभी तुम मिल गए । भाई, मेरे दुःख का कारण यही है ।' ( श्लोक ८९-९८ )
उसकी बात सागरचन्द्र को ऐसी लगी जैसे उसने तीव्र हलाहल पीलिया है । वह उसी प्रकार निष्पन्द हो गया जैसे निवात समुद्र स्थिर हो जाता है । वह बोला- स्त्रियां ऐसी ही होती हैं । कारण, तिक्त धरती के तल का जल तिक्त ही होता है । मित्र, तुम दुःख मत करो, अच्छे कार्य में स्वयं को लगाओ । उसकी बात को मन में मत लामो । वह चाहे कैसी भी हो; किन्तु उसके लिए हमारी मित्रता में किसी प्रकार की मलिनता नहीं आनी चाहिए ।'
( श्लोक ९९-१०२ )
सरल स्वभाव सागरचन्द्र की बात से अधम अशोकदत्त बड़ा श्रानन्दित हुआ | क्योंकि जो कपटी हैं वे अपराध करके भी अपनी प्रशंसा करवाते हैं । ( श्लोक १०३ )
उस दिन से सागरचन्द्र प्रियदर्शना के प्रति स्नेहरहित होकर इस प्रकार रहने लगा जैसे अंगुलि के रोगाक्रान्त होने पर भी मनुष्य उसे काटकर नहीं फेंकता । कारण, निज हाथों से रोपी हुई लता वन्ध्या हो तब भी उसे उखाड़ कर नहीं फेंका जाता ।
( श्लोक १०४ - १०५ )
प्रियदर्शना ने अशोकदत्त की बात पति को कि कहीं उनमें मित्रता का विच्छेद न हो जाए ।
इसलिए नहीं कही
( श्लोक १०६ )
सागरचन्द्र संसार को कारागृह तुल्य समझकर अपना समस्त धन ऐश्वर्य नाथ ददिद्रों को वितरण कर उन्हें कृतार्थ करने लगा । इस प्रकार जीवनयापन कर प्रियदर्शना, सागरचन्द्र और अशोकदत्त ने प्रायुष्य पूर्ण होने पर परलोक गमन किया । ( श्लोक १०७-१०८)
सागरचन्द्र और प्रियदर्शना इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिण भाग में गंगा और सिन्धु के मध्यवर्ती भू-भाग में इसी ग्रवसर्पिणी के तृतीय प्रारे में जबकि पल्योपम का एक अष्टमांश बाकी था तब युगल रूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक १०९ - ११० )