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ऐसा कहकर प्रांख में पानी भरकर नाना कपट करता हुआ वह चुप हो गया। तब निश्छल सागरचन्द्र सोचने लगा-'पोह ! सचमुच ही संसार असार है। तभी तो ऐसे व्यक्ति को भी हठात् दु:ख के सम्मुखीन होना पड़ा । धुग्रां जिस प्रकार अग्नि की सूचना देता है उसी प्रकार धैर्य द्वारा भी जो नहीं सहा जा सकता उस अान्तरिक दुःख को अश्रु हो प्रकट कर देता है।' (श्लोक ८१-८३)
कुछ क्षण इस प्रकार चिन्ता करता हुआ उसके दुःख से दुःखी सागरचन्द्र फिर वाष्परुद्ध कण्ठ से बोला-'मित्र, यदि बोलने लायक हो तो तुम इसी समय मुझे तुम्हारे दुःख का कारण बतायो और दुःख का कुछ अंश मुझे देकर स्वयं के दुःख को हल्का करो।'
(श्लोक ८४-८५) अशोकदत्त बोला-'मित्र ! तुम मुझे प्राणों जैसे लगते हो । तुमसे जब मैं अन्य कुछ नहीं छिपा सकता तो यह बात भी कैसे छिपा सकता हूं ? तुम तो जानते ही हो संसार में स्त्रियां, अमावस्या जैसे घने अन्धकार की सृष्टि करती है उसी प्रकार, अनर्थ ही उत्पादन करती हैं।'
(श्लोक ८६-८७) ___सागरचन्द्र ने जिज्ञासा प्रकट की, 'किन्तु भाई ! अभी तुम काल-नागिन-सी किस स्त्री के पल्ले पड़ गए हो?' (श्लोक ८८)
तब अशोकदत्त कृत्रिम सलज्जता दिखलाते हुए बोला – 'भाई, प्रियदर्शना मुझे बहुत दिनों से अनुचित बात कह रही थी। मैं यही वात सोचकर उपेक्षा कर रहा था कि वह स्वयं ही लज्जित होकर चुप हो जाएगी; किन्तु कुलटा की भांति उसका भाषण बन्द नहीं हना । कहा भी गया है कि स्त्रियों का असत् अाग्रह बहुत तीव्र होता है । बन्धु, आज मैं तुमसे मिलने तुम्हारे घर गया था तभी उस छलनामयी नारी ने मुझे राक्षसी की भांति जकड़ लिया; किन्तु हस्ती जिस प्रकार बन्धन से मुक्त हो जाता है उसी प्रकार बहुत चेष्टा के पश्चात् उसके बन्धन से मुक्त होकर मैं वहां से निकल भागा हूं। मैं पाते-आते सोच रहा था यह कुलटा जीवनपर्यन्त मेरा परित्याग नहीं करेगी अतः मुझे अात्महत्या कर लेनी चाहिए; किन्तु अात्महत्या करना पाप है। कारण, यह कुलटा उस समय जो कुछ बोलेगी, मेरे विपरीत ही बोलेगी। इसलिए मैं सारा वृत्तान्त मेरे मित्र को क्यों न कह दूं जिससे वह उस पर विश्वास कर स्वयं को