________________
(श्लोक ७०)
प्रियदर्शना बोली क्यों नहीं बता सकते ? बोलिए क्या अभिप्राय है ?
अशोकदत्त बोला- 'हे शुभ्र ! जिस अभिप्राय से मैं तुम्हारे पास प्राता हूँ वही अभिप्राय ।'
(श्लोक ६८-६९) अशोकदत्त के इस प्रकार कहने पर भी सरलस्वभावी प्रियदर्शना इसका अर्थ नहीं समझ सकी । बोली-'मेरे पास आप किस अभिप्राय से पाते हैं ?'
वह बोला-'हे शुभ्र! तुम्हारे पति के अतिरिक्त क्या अन्य किसी रसज्ञ पुरुष से तुम्हें प्रयोजन नहीं हो सकता ?' (श्लोक ७१)
अशोक दत्त का यह वासनापूर्ण वाक्य प्रियदर्शना के कानों में सूई की तरह चुभ गया। वह असन्तुष्ट होकर माथा नीचे किए वोली-'नराधम, निर्लज्ज, तुमने यह सोचा कैसे ? यदि सोचा भी तो उसे प्रकाशित कैसे किया ? मूर्ख ! तुम्हें धिक्कार है ! तुम्हारा यह दुस्साहस ! दुष्ट, तुम मेरे महामना पति को तुम्हारे जैसे होने की सम्भावना है यह मुझे बता रहे हो ? तुम मित्र होकर शत्रे-सा काम कर रहे हो। पापी कहीं के, तुम इसी समय इस स्थान का परित्याग करो। खड़े मत रहो, तुम्हें देखने से ही पाप लगता है।'
(श्लोक ७२-७५) इस प्रकार अपमानित होकर अशोकदत्त चोर की भाँति वहाँ से चला गया। गो-हत्या करने की भाँति पाप रूपी अन्धकार से मलीन मुख लिए अशोकदत्त क्रोध से बड़-बड़ करता जा रहा था। उसी समय सामने से सागरचन्द्र पा रहा था। उसे देखकर सहज स्वभाव से सागरचन्द्र बोला-'मित्र, अाज ऐसे दुःखी कैसे दिखलाई पड़ रहे हो ?'
(श्लोक ७५-७७) पर्वत तुल्य कपटी अशोकदत्त दीर्घ नि:श्वास फेंकता हुआ भानो महान् दुःख से पीड़ित हो इस प्रकार होठ दबाते हुए बोला'हिमालय के निकट जो रहता है शीत के दु:ख का का कारण जिस प्रकार उससे छिपा नहीं रहता उसी प्रकार संसार में जो रहता है उससे भी दुःख का कारण छिपा नहीं रहता । फिर भी गुप्त स्थान में हुए फोड़े की भांति ही यह मेरा दुःख है जिसे न छिपा सकता हूँ न प्रकट कर सकता हूं।
(श्लोक ७८-८०)