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इसलिए हे पुत्र ! कुल परम्परागत योग्य व्यवहारी होकर तुम धन की भाँति गुण को भी गुप्त रखो एवं जो स्वभाव से कुटिल हैं ऐसे दुर्जनों की संगति का परित्याग करो। क्योंकि दुर्जनों की संगति उन्मुक्त श्वान के विष की भाँति समय आने पर अनिष्टकारी ही होती है । हे वत्स ! अधिक परिचय से तुम्हारा मित्र तुम्हें उसी प्रकार नष्ट करेगा जैसे कुष्ठ रोग वद्धित होकर समस्त शरीर को नष्ट कर देता है। कपटी अशोकदत्त वेश्या की भांति मन में कुछ सोचता है, मुंह से कुछ बोलता है और करता कुछ और है।'
(श्लोक २८-४१) श्रेष्ठी इस प्रकार प्रादरसहित उपदेश देकर जब चुप हो गए तो सागरचन्द्र मन ही मन सोचने लगा-'प्रियदर्शना सम्बन्धी व्यापार इन्हें मालूम हो गया है तभी इस प्रकार उपदेश दे रहे हैं। यह भी समझा कि मेरे मित्र अशोकदत्त का साहचर्य इन्हें पसन्द नहीं है । ऐसा उपदेश देने वाले गुरुजन भाग्यहीनों को नहीं मिलते । जो भी हो मुझे इनकी आज्ञानुसार ही चलना चाहिए।' कुछ क्षण चिन्तन करने के पश्चात् सागरचन्द्र विनीत और नम्र स्वर में बोला-'पिताजी, आपने जैसा आदेश दिया मैं वैसे ही करूंगा कारण, मैं आपका पुत्र हूं। जिस कार्य को करने से गुरुजनों की ग्राज्ञा का उल्लंघन हो वह करना उचित नहीं है; किन्तु कभी-कभी दैववश अकस्मात् ऐसा समय आ जाता है कि उसके लिए विचारविमर्श का जरा भी समय नहीं रहता। जिस प्रकार मूर्ख व्यक्ति का स्वयं को पवित्र करते-करते ही आराधनाकाल व्यतीत हो जाता है इसी प्रकार ऐसा कुछ कार्य उपस्थित हो जाता है कि विचार कर करने जाने पर वह कार्य विनष्ट हो जाता है। फिर भी पिताजी, अाज से जीवन संकटापन्न होने पर भी ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा जिससे अापको लज्जित होना पड़े और अशोकदत्त के विषय में अापने जो कुछ कहा मैं उसके दोष से दूषित भी नहीं हूँ और गुणों से गुणान्वित भी नहीं। एक साथ रहना, एक साथ खेलना, बारबार मिलना, समान जाति, समान विद्या, समान शील, समान वयस, परोक्ष उपकार और सुख-दुःख में भाग लेने आदि से मेरी उससे मित्रता हो गई है। मैंने तो उसमें कोई कपट नहीं देखा। उसके सम्बन्ध में किसी ने आपको मिथ्या बतलाया हैं क्योंकि