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राशि में जाता है वे भी उसी प्रकार ग्राम, नगर एवं वन में निर्दिष्ट समय तक अवस्थित रहकर ग्रन्यत्र विहार करने लगे । उपवास, छह दिन का उपवास, अठ्ठाई आदि तपस्या द्वारा वे चारित्ररूपी रत्न को उज्ज्वल करने लगे । आहार देने वाले को कोई कष्ट नहीं हो इस प्रकार केवल प्राण धारण करने के लिए वे मधुकरी वृत्ति से पारने के दिन भिक्षा ग्रहण करते । वीर जंसे शस्त्र प्रहार सहन करते हैं वे भी उसी प्रकार धैर्य से क्षुधा, पिपासा, ग्रीष्मादि परिषह सहन करते । मोहराज के चार सेनापति रूप चार कषाय को उन्होंने क्षमा शस्त्र से जय कर लिया । फिर वे द्रव्य व भाव से संलेखना ग्रहण कर कर्मरूप पर्वत का नाश करने के लिए वज्ररूप अनशन व्रत ग्रहरण किया । समाधि धारण कर पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। कहा भी गया है, महात्माओं की अपनी देह से भी मोह नहीं होता । ( श्लोक ७७८ ७८८ )
सप्तम भव
वे छहों महात्मा वहाँ की आयु शेष कर अच्युत नामक देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए क्योंकि, ऐसी तपस्या का फल सामान्य नहीं हो सकता । देवलोक का बाईस सागरोपम का ग्रायुष्य पूर्ण कर पुनः च्युत हुए। कारण, मोक्ष के अतिरिक्त कोई स्थान ही अच्युत नहीं । ( श्लोक ७८९-७९०)
पूर्व विदेह के पुष्कलावती नामक विजय में लवण समुद्र के तट पर पुण्डरीकिनी नाम का एक नगर था । उस नगर के राजा का नाम था वज्रसेन । उनकी धारिणी नामक पत्नी के गर्भ से उनमें से पाँच पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। उन पाँच पुत्रों में जीवानन्द का जीव चौदह महास्वप्न सूचित वज्रनाभ नामक प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ । राजपुत्र महीधर का जीव सुबाहु नाम का द्वितीय और मंत्री पुत्र सुबुद्धि का जीव तृतीय, श्रेष्ठीपुत्र पूर्णभद्र का जीव पीठ नामक चतुर्थ एवं सार्थवाह पुत्र पूर्णभद्र का जीव पंचम पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ | केशव का जीव सुयश नामक अन्य राजपुत्र हुआ । सुयश बाल्यकाल से ही वज्रनाभ के सन्निकट रहने लगा क्योंकि पूर्व भव का स्नेह-सम्बन्ध इस भव में भी प्रेम उत्पन्न करता है ।
(श्लोक ७९१-०९६)