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विलेपन कर दिया । इससे देह में प्रशान्ति प्रायी । इस प्रकार प्रथम चर्म के भीतर रहे हुए कीटों को निकाला । तदुपरान्त फिर शतपाक तेल का मर्दन किया । इससे उदानवायु से जिस प्रकार रस निकलता है उसी प्रकार माँस के भीतर से कृमियों को निकाला । पूर्व की भाँति ही रत्नकम्बल से उनकी देह आच्छादित की। इससे दोतीन दिन के दधिकीट जिस प्रकार लाक्षारजित वस्त्र में तैरने लगते हैं उसी प्रकार कुष्ठ कृमियाँ उस रत्नकम्बल में तैर कर आयीं । इस बार भी जीवानन्द ने उसे गाय के मृत शरीर पर डाल दिया । धन्य है वैद्य की यह चतुराई । पुनः जीवानन्द ने ग्रीष्मकाल पीड़ित हस्ती को जैसे मेघ शान्त करता है उसी प्रकार गोशीर्ष चन्दन के रस से मुनि को शान्त किया । इसके कुछ क्षण पश्चात् उन्होने लक्षपाक तेल मर्दन किया । इससे हाड़ों में रहे हुए कुष्ठ कीट निकल पड़े । कारण, बलवान व्यक्ति यदि रोष करे तो वज्रनिर्मित पिंजरा भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता । वे कृमियाँ भी पूर्व की भाँति ही रत्नकम्बल में लाकर गाय पर फेंक दी गयीं । ठीक ही कहा गया है, मन्द के लिए मन्द स्थान ही उपयुक्त रहता है । फिर उस वैद्य शिरोमणि ने परम भक्ति के साथ जिस प्रकार देवताओं की देह में विलेपन किया जाता है उसी प्रकार गोशीर्ष चन्दन का रस मुनि के सर्वाङ्ग में विलेपन किया । इस चिकित्सा से वे मुनि नीरोग और कान्तिसम्पन्न हुए और मार्जित स्वर्णमूर्ति की भाँति शोभासम्पन्न हुए । अन्त में उन मित्रों ने मुनि से क्षमा याचना की। मुनि भी वहाँ से विहार कर अन्यत्र चले गए । कारण, वैसे साधु पुरुष कभी भी एक स्थान में नहीं रहते । ( श्लोक ७६३-७७७ )
रत्नकम्बल और स्वर्ण और ग्रर्थ
तत्पश्चात् उन्हीं बुद्धिमानों ने अवशिष्ट गोशीर्ष चन्दन विक्रय कर स्वर्ण खरीदा । जिस से वे गोशीर्ष चन्दन और रत्नकम्बल पहले क्रय करना चाहते थे उसी अर्थ और स्वर्ण से उन्होंने मेरुशिखर जैसे एक जिनालय का का निर्माण करवाया । जिन प्रतिमा की पूजा और गुरु की उपासना कर उन्होंने कर्मक्षय करते हुए बहुत समय व्यतीत किया । तदुपरान्त एक दिन उनके मन में संवेग उत्पन्न हुआ । तब वे गुरु महाराज के सन्निकट जाकर जंबूबृक्ष के फल-सी दीक्षा ग्रहण कर ली । नवग्रह जिस प्रकार निर्दिष्ट समय तक प्रवस्थान कर एक राशि से दूसरी