________________
(५७
मुल्य देने की आवश्यकता नहीं है। इनका मूल्य रूप में धर्म रूप अक्षय निधि मैं प्राप्त करूंगा। तुम लोगों ने सहोदर भाई की तरह धर्मकार्य में अंशीदार बनाया उसके लिए धन्यवाद ।' ऐसा कहकर वणिक ने उन्हें दोनों वस्तुएँ दे दीं। फिर उसी शुद्ध अन्तःकरण से उस वणिक ने दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया।
(श्लोक ७५४-७५६) __ औषध लेकर महात्मानों में अग्रणी वे मित्र जीवानन्द को लेकर मुनि के पास गए। वे मुनि कायोत्सर्ग ध्यान में एक वट-वृक्ष के नीचे खड़े थे। उन्हें देखकर लगता था जैसे बड़ की जड़ हो । मुनि महाराज को वन्दना कर वे मित्र बोले-'हे भगवन्, चिकित्सा के लिए हम अाज अापकी तपस्या में विघ्न करेंगे। आप आज्ञा दीजिए और पुण्य दान प्रदान कर हमें अनुगृहीत कीजिए।'
(श्लोक ७५७-७५९) मुनि ने चिकित्सा की अनुमति दी। तब वे लोग तुरन्त की मरी हुई एक गाय ले पाए । कारण, सवैद्य कभी विपरीत (पापयुक्त) चिकित्सा नहीं करते । फिर उन्होंने मुनि के समस्त शरीर में लक्षपाक तेल मालिश किया। वह तेल नाले के पानी की भाँति उनकी शिरा-उपशिरा में प्रविष्ट हो गया। देह में ताप उत्पन्नकारी उस तेल की गर्मी से मुनि बेसुध हो गए। कड़े रोग में उग्र औषध ही कार्य करती है।
__ (श्लोक ७६०-७६२) बल्मीक में जल डालने से जैसे उसमें से दीमक निकलती है उसी प्रकार उत्ताप से आतुर होकर मुनि के शरीर से कुष्ठ कृमि निकलने लगी। तब जीवानन्द ने चाँद जैसे अपनी चन्द्रिका से गगन को आच्छादित कर देता है उसी प्रकार मुनिदेह को रत्नकम्बल से पाच्छादित कर दिया। रत्नकम्बल में शीतलता थी। इसीलिए शरीर से निकली हुए कुष्ठ कृमियों ने गर्मी के दिन में दोपहर के समय मछलियाँ जैसे शीतलता के लिए शैवाल में आश्रय लेती है उसी प्रकार रत्नकम्बल में आश्रय लिया । तब उसने रत्नकम्बल को बिना हिलाए धीरे-से उठाकर उसकी समस्त कृमियों को उस मरी हुई गाय पर डाल दिया। कहते हैं सत्पुरुषों का समस्त कार्य अद्रोह ही प्रकाशित करता है। इसके पश्चात् जीवानन्द ने अमृत रस तुल्य जीवमात्र को प्रारणदानकारी गोशीर्ष चन्दन का उनके सर्वाङ्ग में