________________
५२]
कुमार को बुलवाकर कहा-'मेरी कन्या श्रीमती पूर्वजन्म की भांति ही इस जन्म में भी तुम्हारी बने यही मैं चाहता हूँ।'
(श्लोक ६८५-६८६) वज्रजंघ ने यह बात स्वीकार कर ली । समुद्र ने जिस प्रकार लक्ष्मी का विवाह विष्णु से किया था वज्रसेन ने भी अपनी कन्या श्रीमती का विवाह उसी प्रकार वज्रजंघ से कर दिया। फिर चन्द्रिका की भाँति एक रूप पति पत्नी ने उज्ज्वल पट्टवस्त्र धारण कर राजा की आज्ञा लेकर लोहार्गलापुर को गमन किया। वहाँ पुत्र की योग्यावस्था समझकर सुवर्णजंघ ने भी पुत्र को राज्यभार देकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
(श्लोक ६८७-६८९) इधर चक्रवर्ती वज़सेन ने भी स्वपुत्र पुष्करपाल को राज्यभार देकर प्रव्रज्या ग्रहण की और तीर्थंकर हुए।
वज्रजंघ निजप्रिया के साथ सम्भोग करते हुए जिस प्रकार हस्ती कमल को वहन करता है उसी प्रकार राज्यभार वहन करने लगे । गंगा और समुद्र की तरह वे कभी वियुक्त नहीं होते । निरन्तर सुख भोग करते हुए उस दम्पती के एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
(श्लोक ६९०-६९२) अहिकुल की उपमा सेवनकारी और महाक्रोधी सामन्त राजा पुष्करपाल के विरोधी हो गए। सर्प की भाँति उन्हें वश में लाने के लिए पुष्करपाल ने वज्रजंघ को बुलवाया। शक्तिशाली वज्रजंघ उसकी सहायता के लिए रवाना हुए। इन्द्र के साथ जिस प्रकार इन्द्राणी जाती है उसी प्रकार अचल भक्तिमती श्रीमती भी स्वामी के साथ हो गई। अर्द्धपथ जाते न जाते अमावस्या की रात्रि में चन्द्रिका का भ्रम उत्पन्नकारी एक विस्तृत काशवन उन्होंने देखा । पथिकों ने कहा-'इस पथ पर दृष्टि विष सर्प रहता है।' यह सुन कर उन्होंने भिन्न पथ से गमन किया क्योंकि नीतिवान् पुरुष उपस्थित कार्य में ही तत्पर होते हैं।
(श्लोक ६९३-६९७) पुण्डरीक सदृश वजजंघ पुण्डरीकिनी नगरी में उपस्थित हुए। उसके शक्तिबल से समस्त सामन्त नृपतिगण पुष्करपाल के अधीन हुए। विधिज्ञाता पुष्करपाल ने जिस प्रकार गुरुजनों का सम्मान करना चाहिए उसी प्रकार वजजंघ राजा का सम्मान किया।
(श्लोक ६९८-६९९)