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गए । तब उनकी चेतना लौटी । उसी क्षण मानो इसी मुहूर्त्त में स्वर्ग से अवतरण किया हो इस प्रकार उन्हें जाति स्मरण ज्ञान हुआ । ( श्लोक ६७१-६७२ )
पण्डिता ने तब उनसे पूछा - ' कुमार, इस चित्रपट को देखकर तुम मूच्छित क्यों हो गए ?"
वज्रजंघ ने प्रत्युत्तर दिया- 'भद्रे, मेरे पूर्वजन्म की कथा मेरी स्त्री सहित इस चित्रपट पर अंकित है । वही देखकर मैं मूच्छित हो गया । यह है ईशान कल्प, उसमें यह श्रीप्रभ विमान है । यह मैं ललितांगदेव हूं। यह मेरी देवी स्वयंप्रभा है । धातकी खण्ड के नन्दीग्राम में महा दरिद्र के घर जन्मी निर्नामिका अम्बरतिलक शिखर पर यह खड़ी है और युगन्धर नामक मुनि से अनशन व्रत ग्रहण कर रही है । यहां वह मुझ पर ग्रासक्त हो इसलिए मैं उसे दिखलाई दे रहा हूं | वहां उसने मृत्यु प्राप्त होने पर मेरी स्वयंप्रभा नामक देवी के रूप में जन्म ग्रहण किया है। यहां मैं नन्दीश्वर द्वीप में ग्रर्हतु प्रतिमा के पूजन-वन्दन में निरत हूं और यहां ग्रन्य तीर्थ को जाते समय मैं च्युत हुआ । एकाकिनी दीन और दरिद्र की 'भांति स्वयंप्रभा ने यहां जन्म ग्रहण किया - ऐसा मेरा अनुमान है । वह मेरे पूर्व भव की प्रिया थी । अब यहीं है । मेरा विश्वास है जाति स्मरण ज्ञान से उसने ही यह चित्रपट अंकित करवाया है । कारण, अनुभव के बिना दूसरा कोई यह सब नहीं जान सकता ।' ( श्लोक ६७३ - ६८१ )
समस्त स्थानों पर निर्देशन कर वज्रजंघ जो कुछ बोला, सुन कर पण्डिता बोली- 'वत्स, तुम्हारी बात सत्य है ।'
तब पण्डिता श्रीमती के पास गई और हृदय के दुःख को दूर करने वाली औधष की भांति सारा वृतान्त उसे सुनाया ।
मेघ के शब्द सुनकर विदुर पर्वत की भूमि जिस प्रकार रत्नों से अंकुरित हो जाती है उसी प्रकार श्रीमती अपने प्रिय पति के विषय में सुनकर रोमांचित हो गई। फिर उसने पण्डिता से सब कुछ पिता को कहलवा भेजा । कारण, स्वच्छन्द न होना कुलीन कन्या का धर्म है । (श्लोक ६८२-६८४) पण्डिता की बात सुनकर वज्रसेन उसी प्रकार आनन्दित हुए जैसे मेघ ध्वनि सुनकर मयूर ग्रानन्दित होता है । उन्होंने वज्रजंघ