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ही लोगों पर उपकार करने के लिए कटिबद्ध हैं । मेरी प्रार्थना है कि मेरे जैसे मनुष्य को प्रतिबोध देने के लिए ६३ शलाका-पुरुषों के चरित पर प्रकाश डालें ।'
इससे स्पष्ट है कि राजर्षि कुमारपाल के प्राग्रह से ही आचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना उनके अध्ययन हेतु की थी । पूर्वाङ्कित ग्रन्थों की रचना के अनन्तर इसकी रचना होने से इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १२२० के निकट ही स्वीकार्य होता है । यह ग्रन्थ हेमचन्द्राचार्य की प्रौढावस्था की रचना है और इस कारण इसमें उनके लोकजीवन के अनुभवों तथा मानव स्वभाव की गहरी पकड़ की झलक मिलती है । यही कारण है कि काल की इयत्ता में बंधी पुराणकथाओं में इधर-उधर बिखरे उनके विचारकरण कालातीत हैं । यथा 'शत्रु भावना रहित ब्राह्मण, बेईमानीरहित वणिक, ईर्ष्यारहित प्र ेमी, व्याधिरहित शरीर, धनवान - विद्वान्, अहंकार रहित गुणवान्, चपलतारहित नारी तथा चरित्रवान् राजपुत्र बड़ी कठिनाई से देखने में आते हैं ।'
श्री गणेश ललवानी इस पुस्तक के अनुवादक हैं । ये बहुविध विधाओं के सफल शिल्पी हैं । इन्होंने इसका बंगला भाषा में अनुबाद किया था और उसी का हिन्दी रूपान्तरण श्रीमती राजकुमारी बेगानी ने सफलता के साथ किया है । शब्दावली में कोमलकान्त पदावली और प्रांजलता पूर्णरूपेण समाविष्ट है । इसके सम्पादन में यह विशेष रूप से ध्यान रखा गया है कि अनुवाद कौन से पद्य से कौन से पद्य तक का है, यह संकेत प्रत्येक गद्यांश के अन्त में दिया गया है । हम श्री गणेश ललवानी और श्रीमती राजकुमारी बेगानी के प्रत्यन्त प्रभारी हैं कि इन्होंने इसके प्रकाशन का श्रेय प्राकृत-भारती को प्रदान किया और हम उनसे पूर्णरूपेण प्राशा करते हैं कि इसी भाँति शेष ९ पर्वों का अनुवाद भी हमें शीघ्र ही प्रदान करें जिससे हम यह सम्पूर्ण ग्रन्थ धीरे-धीरे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सकें ।
देवेन्द्रराज मेहता सचिव
अध्यक्ष
जैन श्वे० नाकोडा प्राकृत भारती अकादमी प्राकृत भारती अकादमी पार्श्वनाथ तीर्थ मेवानगर
जयपुर
जयपुर
पारसमल भंसाली म० विनयसागर
निदेशक
( उ )