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४८] च्यूत होकर उसी विजय के पुण्डरीकिनी नगरी के राजा वज्रसेन की पत्नी गुणवती के गर्भ से कन्या रूप में उत्पन्न हुई। देखने में वह खुब सुन्दर थी। अत: उसके माता-पिता ने उसका नाम रखा श्रीमती । मालियों द्वारा प्रतिपालित होकर लता जिस प्रकार बढ़ती है उसी प्रकार परिचारिकाओं द्वारा प्रतिपालित श्रीमती बढ़ने लगी । उसका शरीर कोमल और करतल नवीन किसलय की भांति प्रभा सम्पन्न था। रत्नों से जड़कर अंगूठी जिस प्रकार शोभा देती है उसी प्रकार स्वकान्ति से पृथ्वी को आनन्दित करती हुई श्रीमती यौवन को प्राप्त हुई। सान्ध्यकालीन अभ्रमाला जिस प्रकार पर्वतशिखर पर आरूढ़ होती है उसी प्रकार उसने एक दिन अपने सर्वतोभद्र नामक प्रासाद के शीर्ष पर आनन्द के साथ प्रारोहण किया। वहां से उसने प्रत्यक्ष एक देव-विमान को जाते देखा। मनोरम नामक उद्यान में किसी मुनि को केवल ज्ञान होने के कारण देवगण उनके पास जा रहे थे। उसे देखकर श्रीमती को लगा, ऐसा विमान उपने कभी देखा है। सोचते-सोचते रात को दृष्ट स्वप्न की भांति उसे पूर्वजन्म स्मरण हो पाया। पूर्वजन्म के ज्ञान भार को सहन करने में असमर्थ होने के कारण वह उसी क्षण बेसुध होकर गिर पड़ी। सखियों ने चन्दनादि लगाकर उसकी चेतना को लौटाया। वह सोचने लगी-'पूर्वभव में ललितांगदेव मेरे पति थे। वे स्वर्ग से च्युत हो गए थे। नहीं जानती अभी वे कहां है ? हाय ! इसीलिए मेरा मन दु:ख से भाराक्रान्त है। मेरे हृदय पर एकमात्र उन्हीं का अधिकार हैं। वही मेरे प्राणेश्वर हैं। सचमुच ही कपूर के पात्र में कोई लवण निक्षेप करता है । यदि मैं अपने प्राणपति के साथ ही बात नहीं कर सकती तब अन्य के साथ बात करने से काम ही क्या है ?' यह सोचकर उसने मौन धारण कर लिया।
(श्लोक ६२७-६३९) जब उसने बोलना बन्द कर दिया तो उसकी सखियों ने इसे देव-दोष मानकर उसे स्वस्थ करने के लिए मन्त्र-तन्त्र से उपचार करने लगीं; किन्तु विभिन्न उपचारों के पश्चात् भी वे उसे स्वस्थ नहीं कर पायीं। कारण, एक रोग की औषधि अन्य रोग को ठीक नहीं कर सकती। जितना प्रयोजन होता उतना लिखकर या संकेत से वह अपनी प्रयोजनीय बातें परिजनों को ज्ञात करवाने लगी।
(श्लोक ६४०-६४२)