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उनकी यह ग्रवस्था देखकर देवी स्वयंप्रभा बोली- 'मैंने ऐसा कौन-सा अन्याय किया है कि श्राप इस प्रकार मुझसे असन्तुष्ट हो गए हैं ? " (श्लोक ६१४)
ललितांग देव बोले- 'हे शुभ्र, तुमने कोई अन्याय नहीं किया है । अपराध मेरा ही है कि मैंने कम पुण्य और कम तपस्या की है। पूर्व जन्म में मैं विद्याधर राजा था । तब मैं भोगकार्यरत और धर्मकार्य में प्रमादी था । मेरे सौभाग्य दूत की भांति स्वयं बुद्ध नामक मन्त्री ने मेरी आयु कम है यह जानकर मुझे जिनधर्म का उपदेश दिया । मैंने उसे स्वीकार किया । उस सामान्य समय के लिए किए धर्म के प्रभाव से मैं इतने दिनों तक श्रीप्रभ विमान का अधीश्वर बना; किन्तु अब मुझे यहां से जाना होगा । कारण, 'अलभ्य वस्तु कभी प्राप्त नहीं होती ।' ( श्लोक ६१५- ६१८ )
उसी समय इन्द्र की प्राज्ञा से दृढ़धर्मा नामक देवता उसके निकट आए और बोले - 'ग्राज ईशान कल्प के अधीश्वर नन्दीश्वरादि द्वीप में जिनेश्वर प्रतिमापूजन के लिए जाएँगे । उनकी प्राज्ञा है आप भी उनके साथ जाएँ । (श्लोक ६१९-६२० ) यह सुनकर ललितांग देव प्रानन्दित हो गए । सौभाग्यवश आज्ञा समयानुकूल प्राप्त हुई है यह सोचते हुए स्वयंप्रभा को लेकर यात्रा पर निकल पड़े । नन्दीश्वर द्वीप जाकर उन्होंने शाश्वत ग्रर्हत प्रतिमानों की पूजा की । उस पूजा से प्राप्त आनन्द में वे अपना पतन काल भी भूल गए । निर्मल मन से वे जब अन्य तीर्थ की र जा रहे थे उनकी प्रायु समाप्त हो गई और वे अल्प बचे हुए तेल के प्रदीप की भांति राह में ही बुझ गए अर्थात् देवयोनि से च्युत हो गए । (श्लोक ६२१-३२३)
जम्बूद्वीप में समुद्र के निकट पूर्व विदेह क्षेत्र प्रवस्थित है । वहां सीता नामक नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावती नामक एक वृहद नगर है । उस नगर के राजा का नाम है स्वर्णध्वज । उसकी पत्नी लक्ष्मी के गर्भ से ललितांग देव पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए । आनन्द से उत्फुल्ल उनके माता-पिता ने उनका नाम रखा वज्रजंघ । ( श्लोक ३२४ - ६२६)
स्वयंप्रभा देवी भी ललितांग देव के वियोग से दुःखी होकर धर्म कार्य में दिन व्यतीत करने लगी। कुछ समय बाद वहां से