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ललितांगदेव ने वैसा ही किया । ललितांगदेव में ग्रनुरक्त होकर निर्नामिका मृत्यु के पश्चात् पुनः स्वयंप्रभा के रूप में उसी श्रीप्रभ विमान में उत्पन्न हुई । प्रणयकोप से दूर हो जाने वाली स्त्री के पुनः आने की भांति अपनी प्रिया को प्राप्तकर ललितांगदेव उसके साथ अधिक ग्रानन्द क्रीड़ा करने लगे । कारण, धूप से पीड़ित प्राणी की छाया अत्यन्त प्रिय व सुखदायी लगती है ।
(श्लोक ६००-६०१ ) इस प्रकार क्रीड़ा करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया । ललितांग देव में स्वर्ग से पतन होने के क्रमशः समस्त चिह्न प्रकट होने लगे । स्वामी का वियोग निकट जानकर उसके रत्नाभरण निस्तेज, मुकुट की माला म्लान और ग्रङ्ग के वस्त्र मलीन होने लगे । कहा गया है - 'जब दुःख समीप आ जाता है तो लक्ष्मी विष्णु को भी छोड़ जाती है ।' उस समय ललितांग देव के हृदय में धर्म के प्रति अनादर और भोग की विशेष लालसा उत्पन्न हुई । जब अन्त समय निकट प्राता है तब प्राणि की प्रकृति में परिवर्तन होता ही है। उसके परिजनों के मुख से अपशकुनमय शोककारक और नीरस वचन निकलने लगे । कहा है- 'बोलने वाले की जबान से जो कुछ होने वाला होता है वैसा ही वाक्य निकलता है ।'
(श्लोक ६०२-६०६)
जन्म से प्राप्त लक्ष्मी और लज्जा रूप प्रिया ने उसका इस प्रकार परित्याग कर दिया जिस प्रकार लोग अपराधी का परित्याग कर देते हैं। चींटी के जिस प्रकार मृत्यु के समय पंख निकल प्राते हैं उसी प्रकार ग्रदीन और निद्रारहित ललितांग देव दीन व निद्राधीन हो गए । हृदय के साथ उनका सन्धि-बन्ध शिथिल होने लगा । महाबलवान् पुरुष भी उनके जिन कल्पवृक्षों को हिला नहीं सकते थे वे कांपने लगे । उनके नीरोग ग्रङ्ग-प्रत्यङ्गों की सन्धि भविष्य के दुःख की शंका से भग्न होने लगी । अन्य के स्थायी भाव को देखने में असमर्थ उनकी ग्रांखें वस्तु को देखने में असमर्थ हो गयीं । गर्भावास के दुःख का भय प्राप्त हो गया हो इस प्रकार उनका समस्त शरीर कांपने लगा । ऊपर अंकुश लिए बैठे महावत के कारण जिस प्रकार हस्ती स्वस्तिलाभ नहीं करता उसी प्रकार ललितांग देव भी रम्य क्रीड़ा पर्वत, सरिता, वापी, दीर्घिका और उद्यान में प्रानन्द प्राप्त नहीं करते ।
(श्लोक ६०७-६१३)