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पोत जैसे समुद्र में डूब जाता है उसी प्रकार हिंसा रूप भार से जीव नरक रूप समुद्र में डूब जाता है । इसीलिए हिंसा करना कभी भी उचित नहीं है । मिथ्या का सर्वदा परित्याग करना ही उचित है । कारण, मिथ्या भाषण से जीव संसार में इस प्रकार भ्रमित होता है जैसे चक्करदार हवा में तृण । चोरी भी नहीं करनी चाहिए । स्वामी की अनुमति के बिना कभी कोई चीज नहीं लेनी चाहिए । कारण, चौर्यकर्म के द्वारा वस्तु अपहरणकारी उसी प्रकार कष्ट पाता है जिस प्रकार कौंच की फलीस्पर्शकारी मनुष्य खुजलाते -खुजलाते कष्ट पाता है । ब्रह्मचर्य (संभोग सुख ) सर्वदा परिहार करना उचित है । कारण, ब्रह्मचर्यहीन उसी प्रकार नरक में जाता है जिस प्रकार ग्रारक्षी दुष्कृतकारी को ले जाता है । परिग्रह, संचित करना भी उचित नहीं है । कारण, अत्यन्त भार से वलीवर्द जिस प्रकार कीचड़ में टक जाता है उसी प्रकार परिग्रहकारी परिग्रह भार से दुःख सागर में निमग्न हो जाता है । जो हिंसादि पांच व्रतों का सामान्य रूप से ही परित्याग करता है वह उत्तरोत्तर कल्याण सम्पत्ति का पात्र बनता है । ( श्लोक ५८३ - ५९१) 'केवली भगवान के मुख से उपदेश सुनकर निर्नामिका को वैराग्य उत्पन्न हो गया । लौह - गुटिका की भांति उसकी कर्म ग्रन्थि बिद्ध हो गयी। उसने सम्यकतया महामुनि से सम्यक्त्व ग्रहण किया । सर्वज्ञ कथित श्रावक धर्म अङ्गीकार कर परलोक के पाथेय रूप पंच अणुव्रत धारण किए । तदुपरान्त महामुनि को वन्दन कर स्वयं को कृत्य कृत्य समझती हुई काष्ठ बोझ लेकर अपने घर लौट गयी । उस दिन से उस बुद्धिमती निर्नामिका ने अपने नामानुकूल युगन्धर मुनि के उपदेश को हृदय से धारण कर नाना प्रकार के तप करने प्रारम्भ किए । क्रमशः वह यौवन को प्राप्त हुई; किन्तु किसी ने भी उससे विवाह नहीं किया । जिस प्रकार कड़वे तुम्बे को पकने पर भी कोई ग्रहण नहीं करता उसी प्रकार उसे भी किसी ने ग्रहण नहीं किया । तब विशेष वैराग्यभाव से निर्नामिका ने युगन्धर मुनि से अनशनव्रत ग्रहण किया । हे ललितांगदेव, अब उसकी मृत्यु सन्निकट अनुरक्त है। तुम उसके निकट जाम्रो । उसे स्वयं को दिखलाओो ताकि तुममें होकर मृत्यु के पश्चात् वह पुनः तुम्हारी पत्नी बने । कहा भी गया है - - ' अन्त में जैसी मति होती है वैसी ही गति होती
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( श्लोक ५९२ - ५९९ )