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करने के लिए बोला-'हे महासत्त्व, आप स्त्री के लिए क्यों इतने व्याकुल हो गए हैं ? धीर व्यक्ति तो स्वयं की मृत्यु के समय भी अधीर नहीं होते।' ललितांगदेव बोले-'हे बन्धु ! यह तुम क्या कहते हो ? निज प्राणवियोग का दुःख सहा जा सकता है; किन्तु कान्ता-विरह का दुःख नहीं सहा जा सकता।' कहा भी गया है
'इस संसार में एक मृगनयनी ही सार है-जिसके अभाव में समस्त वैभव ही असार है।'
(श्लोक ५२२-५२५) ललितांगदेव की इस वेदनापूर्ण उक्ति को सुनकर ईशानेन्द्र के सामानिक देव दृढ़वर्मा बुःखित हो गए। फिर अवधिज्ञान प्रयोग कर वे बोले-'आपकी प्रिया इस समय कहां है ज्ञात हो गया है अतः धैर्यधारण कर सुनें :
'मर्त्य लोक के धातकी खण्ड के पूर्व विदेह में नन्दी नामक एक ग्राम है। वहां नागिल नामक एक दरिद्र गृहस्थ वास करता है । पेट भरने के लिए भूत की तरह वह सारा दिन फिरता रहता है फिर भी पेट नहीं भर पाता। भूख लेकर ही सोता है, भूख लेकर ही उठता है। दरिद्र की क्षुधा की भांति नागश्री नामक उसकी एक पत्नी है जिसे अभागिनों की प्रमुखा बोला जाता है। दाद पर विषफोड़े की भांति उसके एक-एक कर छह कन्याएँ जन्मीं। ग्राम कुतियानों की तरह वे बहभोगी, कुत्सित और सभी को निन्दा की पात्र थीं। इस पर भी उसकी पत्नी गर्भवती हुई । ठीक ही तो कहा है-'प्रायः दरिद्र के घर ही बहुप्रसवा स्वी देखी जाती हैं।
(श्लोक ५२६-५२३) तब नागिल सोचने लगा-'किस कर्म के फल से मनुष्यलोक में वास करने पर भी मैं नरक-यन्त्रणा भोग रहा हूँ ? मेरे जन्म समय से ही जिसका प्रतिकार करना असम्भव है ऐसे दरिद्र ने मुझे इस प्रकार जीर्ण कर दिया जैसे कि कीट पेड़ के शरीर को जीर्ण कर देता है । प्रत्यक्ष अलक्ष्मी की भांति, पूर्वजन्म के वैरी की भांति, मूर्तिमान् अशुभ लक्षण-सी ये कन्याएँ मेरे दुःख का कारण हो गई हैं। इस बार भी यदि कन्या ही जन्मी तो इस परिवार का परित्याग कर मैं विदेशगमन करूंगा।' - (श्लोक ५३४-५३७
इस प्रकार सोचते-सोचते नागिल ने एक दिन सुना उसकी स्त्री ने फिर कन्या को ही जन्म दिया है तो यह बात उसके कानों