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सी लग रही थी। हजार हजार अप्सराओं से वेष्टित वह मनोहर पदमानना बहु नदो वेष्टित गंगा की तरह प्रतिभासित हो रही थी।
(श्लोक ४९८-५०९) ललितांगदेव को अपनी ओर आते देख स्वयंप्रभा देवी स्नेह से भरकर उठी और उनका सत्कार किया। तब श्रीप्रभ विमान के अधिपति ललितांगदेव स्वयंप्रभा को लेकर पर्यंक पर उपवेशित हुए। एक ही क्यारी में वृक्ष और लता जैसे शोभा पाती है उसी प्रकार वे दोनों शोभित होने लगे। एक शृङ्खला मैं बँध निविड़ अनुराग में दोनों का चित्त एक दूसरे में लीन हो गया। यहां प्रेम का सौरभ अविच्छिन्न है। उस श्रीप्रभ विमान में ललितांगदेव ने स्वयंप्रभा के साथ नर्म क्रीड़ा में दीर्घकाल व्यतीत किया जो कि कला की भांति व्यतीत हो गया। फिर जिस प्रकार वृक्ष से पत्ता झड़ पड़ता है उसी तरह आयु पूर्ण हो जाने से स्वयंप्रभा देवी ने उस विमान से च्युत होकर अन्य गति प्राप्त की। सत्य ही है अायुष्य पूर्ण होने पर इन्द्र को भी स्वर्ग से च्युत होना पड़ता है।
(श्लोक ५१०-५१५) प्रिया के अभाव में ललितांगदेव इस प्रकार मूछित हो गए जैसे वे पर्वत से पतित हो गए हों या वज्र से पाहत हो गए हों। कुछ क्षण पश्चात् जब उन्हें होश पाया तो वे उच्च स्वर में क्रन्दन करने लगे। वन-उद्यान उनके मन को शान्त और वापी-तडाग शीतल नहीं कर सके। न उन्हें क्रीड़ा-पर्वत पर शान्ति मिली न नन्दनवन उन्हें प्रानन्द दे सका । हाय प्रिये ! हाय प्रिये ! तुम कहां हो ? ऐसा कहते हुए एवं समस्त जगत् को स्वयंप्रभामय देखते हए वे चारों ओर विचरण करने लगे।
(श्लोक ५१६-५१९) उधर स्वयंबुद्ध मन्त्री ने महावल की मृत्यु से वैराग्य प्राप्त कर श्री सिद्धाचार्य नामक प्राचार्य से दीक्षा ग्रहण कर ली। उसने दीर्घकाल तक अतिचारहीन मुनि धर्म पालन कर आयुष्य शेष होने पर ईशान देवलोक में इन्द्र के दृढ़धर्मा नामक सामानिक देवता के रूप में जन्म ग्रहण किया।
(श्लोक ५२०-५२१) उस उदार बुद्धि सम्पन्न दृढ़वर्मा के मन में पूर्व भव के सम्बन्ध के कारण ललितांगदेव के प्रति बन्धुत्व भाव उत्पन्न हुअा। वह अपने विमान से ललितांगदेव के निकट पाया और उन्हें धैर्य प्रदान