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पूर्वजन्म की कथा स्मरण कर उसी मुहूर्त में वहां उठकर वे प्रतिहारी के कन्धों पर हाथ रखकर सिंहासन पर जा विराजे । उस समय चारों ओर उनकी जय ध्वनियां गूंज उठीं । वेवताओं ने उनका अभिषेक किया। चमर डलने लगे और गन्धों ने मधुर स्वर में मंगल गीत गाना प्रारम्भ कर दिया। (श्लोक ४९३-४९४)
___ तदुपरान्त भक्तिप्लुत मन से ललितांग देव वहां से उठे एवं चैत्य में जाकर शाश्वत अर्हत् प्रतिमाओं की पूजा की एवं तीन ग्राम और स्वर के साथ मधुर कण्ठ से मंगलमय गीत सहित विविध प्रकार के स्तोत्रों से जिनेन्द्रदेव की स्तुति की, ज्ञान के लिए प्रदीप रूप धर्म ग्रन्थ का पाठ किया और मण्डप के स्तम्भ में रक्षित अर्हतों की अस्थियों का पूजन-अर्चन किया। (श्लोक ४९५-४९७)
तत्पश्चात् छत्र धारण करने के कारण पूर्णिमा के शशांक की भांति दीप्यमान होकर उन्होंने क्रीड़ाभवन में प्रवेश किया। वहां उन्होंने स्वयंप्रभा देवी को देखा जो निज प्रभा से विद्युत्प्रभा को भी लज्जित कर रही थी। उसके हाथ, पांव, मुख अत्यन्त कोमल थे। इसी कोमलता के कारण वह लावण्यसिन्धु स्थित कमल वाटिका सी लग रही थी। अनुक्रम से स्थूल कर्तुल जंघाए ऐसी लग रही थीं मानो कामदेव ने वहां अपना मस्तक न्यस्त कर रखा है । स्वच्छ दुकुलों में प्रावृत नितम्बों के कारण वह ऐसी शोभायमान हो रही जैसे राजहंसों से परिव्याप्त तट से नदी शोभा पाती है। सुपुष्ट उन्नत स्तनभार वहन करने के कारण कृश उदर और कटि वज्र के मध्य से प्रतीत हो रहे थे। इससे उसका सौन्दर्य और अधिक प्रकाशित हो रहा था। उसका तीन रेखायुक्त सुस्वर कण्ठ कामदेव के जयघोषकारी शङ्ख-सा लगता था। बिम्ब फल को तिरस्कृत करने वाले प्रोष्ठ और नेत्र रूप कमल की मृणालरूप नासिका ने उसे अपरूप सौन्दर्य प्रदान किया था। पूर्णिमा के द्विखण्डित चन्द्र की समस्त सौन्दर्य लक्ष्मी अपहरणकारी उसका सुन्दर स्निग्ध ललाट मन को मुग्ध कर रहा था। उसके कर्ण युगल कामदेव की हिन्दोल लीला को भी लज्जित कर रहे थे । उसकी भकुटि पुष्पधन्वा धनुष की शोभा को हरण करने वाली थी । मुखरूप कमल के पीछे गुञ्जायमान भ्रमरों की भांति उसके केश थे स्निग्ध और काजल वर्ण के । समस्त अङ्ग रत्नजड़ित भूषणों में वह संचारमान कमलता