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और ये हैं आपके नगर रक्षणकारी लोकपाल देवता । ये हैं आपकी सेना वाहिनी के चतुर सेनापतिगण। (४८१)
ये हैं पूर अथवा देशवासी प्रकीर्णक देवता जो आपकी प्रजातुल्य हैं । आपके सामान्य प्रादेश को भी ये मस्तक पर धारण करते
(४८२) ये होते हैं अभियोग्य देवता जो दास की भांति आपकी सेवा करेंगे।
और ये हैं किल्विषयक देवता जो आपके मलिन कर्म करेंगे ।
(४८३)
यह रहा आपका रत्नजड़ित प्रासाद, जो कि सुन्दरी रमणीपूर्ण, अंगनयुक्त एवं चित्ततोषकारी है।
ये सब हैं स्वर्ण-कमल की खान-रूप वापी समूह । रत्न एवं स्वर्ण शिखर युक्त ये आपके क्रीड़ा पर्वत हैं। प्रानन्द दानकारी और निर्मल जल से पूर्ण यह क्रीड़ा तटिनी है। नित्य पुष्प और फलदानकारी ये क्रीड़ा उद्यान हैं।
और स्वकान्ति से युक्त दिक मुख को प्रकाशित करने वाला सूर्यमण्डल के समान स्वर्ण और मारिणवय रचित यह अापका सभामण्डप है।
ये वारांगनाए चमर, पंखा और दर्पण लेकर खड़ी रहती रहती हैं। ये सब आपकी सेवा को ही महामहोत्सव समझती हैं।
__'चार प्रकार के वाद्यों में प्रवीण ये गन्धर्वगण आपको संगीत सुनाने के लिए यहां उपस्थित हैं।'
(श्लोक ४८४-४८९) प्रतिहारी से यह सब सुनकर ललितांग देव चेतना की उपयोग शक्ति के बल से एवं अवधि ज्ञान से स्वयं के पूर्व जन्म की कथा इस प्रकार स्मरण करने लगे जैसे सब कुछ कल ही घटित हया हो :
_ 'मैं पूर्व जन्म में विद्याधर राजा था। मेरे धर्म-बन्धु स्वयंबुद्ध ने मुझे जिनधर्म का उपदेश दिया था। फलतः मैंने दीक्षा लेकर अनशन व्रत ग्रहण किया था। उसी के कारण यह समस्त वैभव मैंने प्राप्त किया है । सचमुच धर्म का प्रभाव अचिन्त्य है।'
(श्लोक ४९१-४९२)