________________
[३७
हाथ में कंकरण, भुजा में भुजबन्ध, वक्षदेश पर हार, गले में ग्रैवेयक, कानों में कुण्डल, सिर पर पुष्पमाला और मुकुटादि भूषण, दिव्य वस्त्र और समस्त अङ्ग का भूषण रूप यौवन उत्पन्न होने के साथसाथ मिला । उसी समय दिक् समूह को प्रतिध्वनित करती हुई देव दुंदुभी बजी। मंगल पाठक भाट बोल उठे – 'हे देव, को जगत् आनन्दित करिए, जयी बनिए।' गीतवादित्र से ध्वनित, चरणादि के कोलाहल से मुखरित यह विमान जैसे अपने स्वामी को प्राप्तकर आनन्द से गूंज उठा है । ललितांग उसी प्रकार उठ बैठे जिस प्रकार सोया हुआ मनुष्य नींद टूटने पर उठ बैठता है । मंगल पाठकों की उपर्युक्त उक्ति सुनकर वे सोचने लगे - 'यह इन्द्रजाल है ? स्वप्न है या माया ? क्या है यह सब ? मेरे लिए ये नृत्य गीत क्यों हो रहे हैं ? ये विनीत लोग मुझ प्रभु कहने को प्रातुर क्यों हैं ? और इस लक्ष्मी मन्दिर रूप प्रानन्द के धाम स्वरूप निवास योग्य प्रिय और रमणीय भवन में मैं कहां से आया हूं ?" ( श्लोक ४६०-४७२ ) उनके मन में जब यही सब भाव उदित हो रहे थे उसी समय प्रतिहारी उनके निकट श्राकर युक्त कर से बोला -- 'देव, प्रापके जैसे प्रभु को प्राप्त कर हम सनाथ हो गए हैं, धन्य हो गए हैं । आप अपने विनयी सेबकों पर कृपा कर अमृत वर्षा कीजिए । यह ईशान नामक द्वितीय देवलोक है, अचंचल लक्ष्मी का निवास रूप और सर्व सुखों का प्राकर है। यहां आप जिस विमान को सुशोभित कर रहे हैं उसका नाम है श्रीप्रभ । पुण्य बल से आपने इस स्वर्ग को प्राप्त किया है और ये सब लोग सामानिक देवता एवं आपकी सभा के अलङ्कार स्वरूप हैं । इनके साथ इस विमान में आप एक होकर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित हो रहे हैं । हे देव ! इन्हें त्रयस्त्रिशक पुरोहित देवता कहा जाता है । ये मन्त्र के स्थान रूप एवं आपकी प्राज्ञा-पालन में सदैव तत्पर हैं । आप इन्हें समयोचित प्रदेश दीजिए । (श्लोक ४७३- ४७८) और ये हैं इस परिषद् के नर्म सचिव या विदूषक | ये प्रानन्द क्रीड़ा में प्रधान हैं । लीला - विलासमय बातों में ये आपका मनोरंजन करेंगे । (श्लोक ४७९ )
सर्वदा कवच और
लिए प्रस्तुत रहते ( श्लोक ४८० )
ये हैं आपके शरीर रक्षक देवता जो कि छत्तीस प्रकार के प्रहरण धारण कर प्रभु रक्षा
के
हैं ।